चुनाव में नक्सलियों का प्रभाव कम होने के साथ नोटा के मत प्रतिशत में भी आ रही कमी

द ब्लाट न्यूज़ देश में नक्सलवाद का प्रभाव बहुत सीमित हो गया है और यह चुनाव में पड़ने वालों वोटों में भी दिखने लगा है। 2013 में नोटा के लागू होने के बाद से ही नक्सली इलाकों में नोटा का प्रतिशत अन्य इलाकों की तुलना में ज्यादा रहा है।

 

 

लेकिन जैसे-जैसे नक्सलियों प्रभाव कम होता जा रहा है, उन इलाकों में नोटा के मतों के प्रतिशत में भी कमी आ रही है। सुरक्षा एजेंसी के एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा कि नक्सलियों और उम्मीदवारों के बीच फंसे ग्रामीणों के लिए नोटा बचाव के विकल्प के रूप में काम करता है।

अब लोगों का भय कम हो रहा है तो चुनाव में भी इसकी झलक दिख रही है अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित सीटों पर नोटा के मतों का प्रतिशत अनुसूचित जाति और सामान्य वर्ग की तुलना में अधिक होने की वजह समझाते हुए सुरक्षा एजेंसी से जुड़े एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा कि अनुसूचित जनजाति के क्षेत्रों में नक्सलियों का अधिक प्रभाव इसकी मुख्य वजह है। लेकिन नक्सलियों के कमजोर पड़ने के साथ-साथ आम लोगों का लोकतांत्रिक प्रक्रिया पर भरोसा भी बढ़ा है और इसके कारण इन क्षेत्रों में नोटा के मतों का प्रतिशत भी कम होने लगा है।

2013 में हुए सभी विधानसभा चुनावों के आंकड़ों में नोटा के मतों को देखें तो जहां अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित सीटों पर 1.96 फीसद और सामान्य सीटों पर 1.56 फीसद मत नोटा का पड़े थे, वहीं अनुसूचित जनजाति के सीटों पर यह आकंड़ा लगभग दोगुना 3.42 प्रतिशत था। लेकिन 2022 तक आते-आते यह अंतर काफी कम हो गया। 2022 में अब तक हुए विधानसभा चुनावों में अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित सीटों में 0.80 फीसद और सामान्य वर्ग में 0.67 फीसद नोटा को मत पड़े थे, वहीं अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित सीटों में यह थोड़ा ही ज्यादा 0.95 फीसद रहा।

वर्ष 2013 के बाद राज्यों में हुए अब तक के विधानसभा चुनावों में नोटा को मिले मतों को देंखे तो 15 विधानसभा सीटों में नोटा के मतों का प्रतिशत सर्वाधिक रहा, जो नक्सलियों से सबसे अधिक प्रभावित वाले इलाके हैं। इनमें छत्तीसगढ़ के पांच, महाराष्ट्र के छह, बिहार के दो और आंध्रप्रदेश व ओडिशा के एक-एक विधानसभा क्षेत्र शामिल हैं। महाराष्ट्र के अत्यधिक नक्सल प्रभावित जिले में आने वाले लातुर ग्रामीण और गढ़चिरौली में 2014 और 2019 के दोनों विधानसभा चुनावों में 10 फीसद से अधिक मत नोटा को मिले थे।

नक्सलियों के कमजोर पड़ने से नोटा का मतों में कमी को सबसे बेहतर रूप में छत्तीसगढ़ के 2013 और 2018 के विधानसभा चुनावों में देखा जा सकता है। यहां जहां 2013 में 3.07 फीसद मत नोटा को मिले थे, वहीं 2018 में यह घटकर 1.98 रह गया। पूर्व चुनाव आयुक्त ओपी रावत के अनुसार अपने प्रभाव वाले क्षेत्रों में नक्सली मतदान का बायकाट का ऐलान तक करते हैं। नक्सलियों के अल्टीमेटम के खिलाफ ग्रामीणों के लिए मतदान करना संभव नहीं है।

वहीं, दूसरी ओर वहां चुनाव मैदान में उतरे उम्मीदवार सभी ग्रामीणों पर मतदान करने का दबाव बनाते हैं। ओपी रावत के अनुसार ऐसे में नोटा का विकल्प मतदाता, उम्मीदवार और नक्सली तीनों को खुश होने का मौका दे देता है। मतदान प्रक्रिया में भागकर मतदाता उम्मीदवार को खुश करता है और नोटा का विकल्प दबाकर नक्सलियों के कोपभाजन से भी बच जाता है।

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