स्वतंत्रता सेनानी हकीम अजमल खां की मजार की दुर्दशा हुई…

-हकीम अजमल खान मेमोरियल सोसायटी ने दिल्ली सरकार से हस्तक्षेप करने की मांग की
-यूनानी से उर्दू की अनिवार्यता को खत्म किए जाने का भी विरोध किया

द ब्लाट न्यूज़। महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी हकीम अजमल खान की मजार की दुर्दशा का मामला एक बार फिर गरमा गया है। राजधानी दिल्ली के पंचकुइयां रोड के पास दरगाह रसूलनुमा में स्थित हकीम साहब के मजार की दयनीय स्थिति का मामला उठाते हुए हकीम अजमल खान मेमोरियल सोसायटी ने दिल्ली सरकार से इस मामले में हस्तक्षेप करने की मांग की है।

सोसाइटी का कहना है कि हकीम साहब एक महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे और वह भारतीय चिकित्सा पद्धति आयुर्वेद और यूनानी को हमेशा बढ़ावा देने की बात करते थे। उनके ही प्रयासों से करोलबाग में आयुर्वेद एंड युनानी तिब्बिया कॉलेज की स्थापना हुई लेकिन आज उनकी मजार की दुर्दशा को देखते हुए लोगों को काफी दुख हो रहा है। उनकी मजार अतिक्रमण का शिकार है। लोगों ने यहां पर अवैध रूप से अपने रहने के लिए मकान आदि बना लिये हैं, जिसकी वजह से वहां पर पहुंचना भी मुश्किल हो गया है।

सोसायटी के महासचिव डॉ. असलम जावेद, डॉ नज़्म रेहान, डॉ. मोहम्मद इमरान ने आज यहां आयोजित एक संवाददाता सम्मेलन को संबोधित करते हुए कहा कि कई बार दिल्ली सरकार से इस मामले को उठाया गया है लेकिन कोई कामयाबी नहीं मिल रही है। दिल्ली हाई कोर्ट में इस मामले को लेकर के गए थे, जहां से मजार की मरम्मत आदि की इजाजत मिली थी लेकिन हम चाहते हैं कि एक स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के रुतबे के हिसाब से उनकी मजार का पुनर्निर्माण कराया जाए और वहां पर आसानी से लोगों के पहुंचने के लिए रास्ता आदि की व्यवस्था की जाए।

उनका कहना है कि यह जगह दिल्ली सरकार के अधिकार क्षेत्र में आती है। दिल्ली वक्फ बोर्ड इस संपत्ति का वारिस है। जब तक दिल्ली सरकार इस मामले में हस्तक्षेप नहीं करेगी तब तक यह मामला हल नहीं हो सकता है, क्योंकि यहां पर रह रहे लोगों के पुनर्वास आदि का भी मामला है। जब तक यहां रह रहे लोगों का पुनर्वास नहीं किया जाएगा, तब तक ये लोग यह जगह खाली नहीं करेंगे और तब तक यहां पर मजार का निर्माण भी नहीं हो पाएगा।

गौरतलब है कि मसीह-उल-मुल्क हकीम अजमल खान राष्ट्रपिता गांधी के साथियों में से थे। उन्होंने करोलबाग स्थित आयुर्वेद एंड यूनानी तिब्बिया कॉलेज की नींव महात्मा गांधी के हाथों से रखवाई थी। आज भी यहां से प्रति वर्ष सैकड़ों बच्चे यूनानी और आयुर्वेद पद्धति से पढ़ाई कर डॉक्टर बन कर देश की सेवा कर रहे हैं।

इस अवसर पर सोसायटी के जरिए आयुष मंत्रालय से यूनानी कॉलेजों में दाखिले के लिए उर्दू की अनिवार्यता को समाप्त किए जाने का भी विरोध किया गया। सोसायटी के पदाधिकारियों का कहना है कि यूनानी और उर्दू का चोली दामन का साथ है। उर्दू की अनिवार्यता को समाप्त करके यूनानी के साथ साजिश रची जा रही है। दसवीं कक्षा में उर्दू की अनिवार्यता को समाप्त करने से यूनानी शिक्षा पद्धति को नुकसान पहुंचाने की कोशिश की जा रही है। बीएमएस और सिद्धा में दाखिले के लिए संस्कृत की अनिवार्यता है। यूनानी से उर्दू को खत्म किया जा रहा है तो क्या आयुर्वेद और सिद्धा से संस्कृत को भी समाप्त नहीं किया जाना चाहिए?

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