धधक रहे जंगल

-सिद्वार्थ शंकर-

इस वक्त दुनिया के कई देशों में जंगल धधक रहे हैं। इससे तो लगता है कि आग की ये लपटें कहीं बहुत जल्दी शहरों को भी लपेटे में न लेने लगें। अमेरिका, कनाडा हो या फिर दक्षिण अमेरिकी महाद्वीप के देश या फिर तुर्की जैसे देश, जंगलों की आग ने इंसान के सामने गंभीर खतरा खड़ा कर दिया है। भारत इससे अछूता नहीं है। इसी तरह हाल में यूरोपीय देशों में आई बाढ़ ने ज्यादातर देशों का हुलिया ही बदल डाला। कहा तो यह जा रहा है कि पिछले एक हजार साल में यूरोप में ऐसी भंयकर बाढ़ नहीं आई। दुनिया के कई हिस्से बाढ़ और जंगलों की आग से बचे हैं तो वहां सूखे ने कहर बरपा रखा है। और पिछले कुछ साल में तो उन देशों में भी लू ने लोगों को झुलसा डाला जहां लोग गर्मी के मौसम की कल्पना भी नहीं करते थे। फिर वातावरण का तापमान बढऩे से ध्रुवीय प्रदेशों तक की बर्फ पिघल रही है और समंदरों का जलस्तर उठता जा रहा है। जाहिर है, तटीय शहरों और टापुओं को आने वाले वक्त में डूबने से बचा पाना मुश्किल हो जाएगा। आमतौर पर हम कहते आए हैं कि अपनी धरती, पानी और हवा के साथ इंसान जिस तरह की क्रूरता करता जा रहा है, उससे प्रकृति भी खफा हो चली है। यह एक ही दिन में नहीं हुआ है।

इसका सबूत यह है कि दुनिया के सारे विकसित और विकासशील देश लंबे समय से इस बात को लेकर चिंतित हैं कि जलवायु संकट से निपटा कैसे जाए। पर्यावरण और धरती को बचाने के लिए दशकों से दुनिया में छोटे-बड़े सम्मेलन होते रहे हैं, समझौते और संधियां भी होती रही हैं। पर ये समझौते अब तक कारगर दिखे नहीं। विद्वान लोग इसका एक बड़ा कारण यह मानते हैं कि पर्यावरण बचाने के लिए जिन देशों को सबसे ज्यादा गंभीरता दिखानी थी, उन्होंनें ही सबसे ज्यादा कोताही बरती। इसका सबसे बड़ा उदाहरण अमेरिका ही है जो अपने स्वार्थों के चलते पेरिस समझौते से अलग हो गया था। सवाल तो यह भी है कि ऐसे कितने देश हैं जिन्होंने कार्बन उत्सर्जन घटाने में संजीदगी दिखाई? बहरहाल अब अगर धरती को बचाने का काम सबके सर पर आ गया है तो बेहतर यही होगा कि समर्थ, संपन्न देश सबसे पहले सक्रिय हों और कुछ ऐसा ठोस करके दिखाएं जिससे दूसरे देशों को भी वैसा ही करने की प्रेरणा मिल सके। वैज्ञानिकों के मुताबिक ग्लोबल वार्मिंग के बढ़ते प्रभाव की वजह से मानसून बनने की परिस्थितियों पर असर पड़ा है।

बरसात का लगातार कम होना इसका संकेत है कि अगर इसी तरह वर्षा कम होने का क्रम बना रहा, तो आने वाले कुछ दशकों में बरसात की जगह अकाल ले सकता है। इससे विश्व स्तर पर भुखमरी, तरह-तरह की बीमारियां, जंगलों और हरियाली का विनाश, भूजल स्तर के नीचे जाने, पीने के पानी की किल्लत सहित अनगिनत समस्याओं और संकटों से विश्व को सामना करना पड़ सकता है। मौसम का चरित्र बदलने से मानव के सामने अनगिनत समस्याएं चुनौती बन कर खड़ी हो गई हैं। पर जिनके चलते समस्याएं पैदा हो रही हैं, उन कारणों को जानते हुए भी उन्हें खत्म करना कठिन हो गया है। गौरतलब है कि उन कारणों में ग्लोबल वार्मिंग, ग्रीन हाउस गैसों का लगातार बढ़ते जाना और प्राकृतिक संसाधनों का मनमाना दोहन प्रमुख है। भारत मौसम विज्ञान के आंकड़ों के अनुसार 1901 से लेकर 2020 के दरम्यान भारत के औसत तापमान में 0.71 डिग्री की बढ़ोतरी हो चुकी है। 2016 भारत का अब तक का सबसे ज्यादा गर्म साल रहा है।

अब तक के 15 सर्वाधिक गर्म सालों में से 12 साल 2006 के बाद दर्ज किए गए हैं। मौसम के बदलाव ने आम आदमी और वैज्ञानिकों को चिंता में डाल दिया है। खेती-किसानी, बागवानी और औषधियों से जुड़े सभी क्षेत्रों पर ग्लोबल वार्मिंग का जो खतरनाक असर पिछले बीस सालों से देखा जा रहा है, उससे कई तरह की समस्याएं और बीमारियों का खतरा लगातार बढ़ रहा है। गौरतलब है कि पिछले बीस सालों में कृषि उत्पादों में 15 फीसद तक कमी आई है। वैश्विक पैदावार में चार फीसद की कमी आई है। रिपोर्ट के अनुसार भारत में धान के उत्पादन वाले लगभग 40 फीसद क्षेत्र के खेती लायक न रह जाने की आशंका जताई गई है। ग्लोबल वार्मिंग के कारण धान, गेहूं, जौ और आलू जैसी फसलों में पौष्टिक गुणों में छह फीसद तक कमी आई है। गौरतलब है कि अगर पौष्टिक गुणों की कमी आगे भी बनी रही तो खाद्यान्न मानव सभ्यता के रक्षक नहीं, बल्कि समस्या बने रहेंगे। वैज्ञानिकों के मुताबिक ग्लोबल वार्मिंग के असर से बारिश का स्वरूप असंगत हुआ है। इससे समय से पहले, तो कहीं समय बीत जाने पर बहुत अधिक बरसात होने की वजह से फसल-चक्र पर जबर्दस्त असर देखा जा रहा है। आज से 40 या 50 साल पहले के मौसम और आज के मौसम में आए बदलावों को जो जानते हैं, उनका मानना है कि पर्यावरण प्रदूषण ने हर क्षेत्र में व्यापक असर डाला है, जिससे ऋतुचक्र और दूसरे तमाम क्षत्रों पर जबर्दस्त असर हुआ है।

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