सरकारों के तमाम दावों के बावजूद हथकरघा उद्योग का संकट बढ़ता ही जा रहा है

-दीपक गिरकर-

देश में 7 अगस्त को राष्ट्रीय हथकरघा दिवस मनाया जाता है। हथकरघा उद्योग भारत में रोजगार का स्वदेशी और प्राचीन जरिया है। कृषि के बाद हथकरघा ही एक ऐसा क्षेत्र है जिसमें मजदूरों की बहुत बड़ी संख्या है। हथकरघा सर्वाधिक रोजगार देने वाला कुटीर उद्योग है। महात्मा गांधी ने हथकरघा को उद्योग बनाकर युवाओं को स्वावलंबी बनाने का सपना देखा था। महिलाएँ हथकरघा उद्योग की रीढ़ हैं। देश की 50 फीसदी से ज्यादा बुनकरों की आबादी देश के उत्तर-पूर्व राज्यों में है जिसमें से ज्यादातर महिलाएँ हैं। इस क्षेत्र में लगातार संकट मंडराता ही जा रहा है। बुनकरों को 14 से 16 घंटे काम करना पड़ता हैं और मजदूरी बहुत कम मिलती है। कई बुनकर कर्ज में डूबे हुए हैं। बहुत सारे हथकरघा बुनकर मजबूर होकर रोजगार छोड़ रहे हैं और कुछ बुनकरों ने परेशान होकर आत्महत्या कर ली है। इन हथकरघा बुनकरों की माली हालत बहुत अधिक खराब है। स्वास्थ्य बीमा योजनाएं इन तक पहुँची नहीं हैं। बुनकरों को सांस से संबंधित बीमारियां हो रही हैं लेकिन उन्हें उचित स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध नहीं हो पाती हैं।
इसे भी पढ़ें: नये कश्मीर में क्या-क्या बदला यदि यह सवाल आपके मन में भी है तो यह रहे जवाब

बीमार बुनकरों और गर्भवती महिला बुनकरों को अवकाश की सुविधा नहीं है। हथकरघा और पावरलूम उद्योग से जुड़े कामगारों को कम मजदूरी, रॉ मटेरियल की कीमत अधिक होना, मार्केटिंग की व्यवस्था सही नहीं होना और सांस से संबंधित बीमारियों जैसी कई समस्याओं से लंबे समय से सामना करना पड़ रहा हैं। दुनिया भर में हाथ से बने उत्पादों की मांग बढ़ रही है। बुनकरों द्वारा हथकरघों पर बनाई साड़ियां हजारों रूपये में बिकती हैं और हर साल बाजार में बिकने वाली साड़ियों की कीमत बढ़ती जा रही है, लेकिन बुनकरों की मजदूरी नहीं बढ़ रही है। बुनकरों की मजदूरी की दर में इजाफा नहीं हुआ है। बुनकर मजदूरों को 20 साल पहले की दर से ही मजदूरी मिल रही हैं। इस व्यवसाय में बड़े कारोबारी और बिचौलिए पैसा बना रहे हैं। पूरे हथकरघा उद्योग पर बड़े कारोबारियों और बिचौलियों का कब्जा है। ये बुनकरों की आवाज को दबा देते हैं। बुनकर सिर्फ मजदूर ही रह गए हैं, वे कारोबारी नहीं बन पाए हैं। बुनकर अपने परिवार की रोजी-रोटी के लिए संघर्ष कर रहे हैं। वे मजदूरी में अपने परिवार का भरण-पोषण नहीं कर पा रहे हैं। बुनकर बदहाल हैं। यह कहा जाता है कि भारतीय बुनकरों कि स्थिति जो अंग्रेजों के शासन के समय थी उससे बेहतर नहीं है। बुनकरों का दर्द किसी को भी नहीं दिखाई दे रहा है। सरकार का ध्यान पॉवरलूम क्षेत्र पर अधिक है। बुनकरों के हाथों से बने कपड़ों की मांग हमारे देश में तो है ही लेकिन विदेशों में भी काफी मांग है। इस व्यवसाय से विदेशी मुद्रा मिलती है लेकिन वह विदेशी मुद्रा बड़े कारोबारियों और बिचौलियों के जेब में जाती है। बुनकरों, कारीगरों को उनकी कड़ी मेहनत की सिर्फ मजदूरी मिलती है जो कि अत्यंत कम होती है। सरकार को ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए कि बुनकर, कारीगर सीधे बाजार में अपना माल बेच सकें। बुनकरों के चेहरे की चमक लौटाने के लिए सरकार ने “ई बाजार” मॉडल के रूप में हाईटेक कदम उठाया था लेकिन यह योजना भी अन्य योजनाओं के समान फ्लॉप साबित हुई। बुनकरों को एक ही छत के नीचे सरकारी सेवाएं मिलनी चाहिए। वैसे फैशन उद्योग ने तो हथकरघा से बने कपड़ों को दिल से अपनाया है।

हथकरघा उद्योग में अधिक संकट वर्ष 1995 के बाद शुरू हुआ। वर्ष 1996 में सरकार ने चीन के लिए बाजार खोल दिया था। हमारे यहां बुनकर हथकरघा में कपड़ा तैयार करते हैं, यदि तैयार करने की लागत एक सौ रूपये है तो वही कपड़ा चीन हमारे यहां 80 रूपये में बेच रहा है। हथकरघा उद्योग के बुनकरों की बहुत-सी समस्याएँ हैं। सभी सरकारें बुनकरों की समस्याओं के समाधान का वादा करती हैं लेकिन कोई भी सरकार अपने वादे पूरे नहीं करती है। देश की आर्थिक नीतियों में बुनकरों के लिए कोई जगह नहीं है। बुनकरों के लिए जरी, रेशम, कपास और अन्य प्रकार के सूत और धागा कच्चा माल होता है। एक ओर कच्चे माल के दामों में वृद्धि से बुनकरों के लिए साड़ी बनाना मुश्किल होता जा रहा है और दूसरी ओर उन्हें अच्छी गुणवत्ता वाला कच्चा माल नहीं मिल रहा है। बिजली की कटौती से बुनकरों की आर्थिक हालत और खराब हो गई है। दिन में बिजली कटौती की वजह से उन्हें दिन की बजाय रात में काम करना पड़ता है। उत्पाद के प्रत्येक स्तर पर और साथ ही अंतिम उत्पाद पर जीएसटी लगाया जा रहा है। जीएसटी लगाने के पूर्व बुनकर व्यापारियों से सूत क्रेडिट पर प्राप्त करते थे लेकिन जीएसटी के कार्यान्वयन के पश्चात बाजार में बुनकरों को क्रेडिट पर काम करना असंभव हो गया है।
इसे भी पढ़ें: देश में बड़े बदलाव की बुनियाद रखी है राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 ने

राष्ट्रीय हथकरघा विकास निगम लिमिटेड (एनएचडीसी) की स्थापना इसलिए की गई थी कि बुनकरों को अपेक्षित गुणवत्ता का सूत और धागा उचित मूल्य पर निर्बाध रूप से मिलता रहे। लेकिन सूत और धागे की आपूर्ति को व्यापारियों द्वारा नियंत्रित किया जाता है। इस उद्योग में कार्यरत अनेक इकाइयों का आकार अनार्थिक है। अधिकाँश इकाइयां पुरानी मशीनरी और पुराने संयंत्र से कपड़ा निर्माण कर रही हैं जिसकी लागत भी ज्यादा आती है।

बुनकरों के कल्याण के लिए सरकार ने कई कदम उठाये। सरकार ने हथकरघा उद्योग के विकास के लिए दर्जनों कल्याणकारी योजनाएं जैसे क्लस्टर योजना, बुनकर स्वास्थ्य बीमा योजना, बुनकर सब्सिडी योजना, पॉवरलूम सब्सिडी योजना, प्रधानमंत्री मुद्रा योजना, हथकरघा संवर्धन सहायता योजना प्रारंभ की लेकिन बुनकरों की हालत में कोई सुधार नहीं हुआ। समस्त बुनकर आर्थिक संकट से जूझ रहे हैं और ये सारी कल्याणकारी योजनाएं दम तोड़ चुकी हैं। हथकरघा संवर्धन सहायता योजना तो पिछले वर्ष ही शुरू हुई थी जिसमें बुनकरों को नए करघों की लागत का 90 फीसदी सरकार मूल्य सरकार को वहन करना था और मात्र 10 फीसदी मूल्य बुनकर को वहन करना था। यह स्कीम बहुत अच्छी है लेकिन इस उद्योग में बजट की कमी और कार्यपालिका द्वारा योजना का उचित क्रियान्वयन नहीं होने से यह योजना भी अपना दम तोड़ चुकी है। वर्ष प्रतिवर्ष सरकार इस क्षेत्र के बजट आवंटन में अनुचित तरह से काफी कमी करती जा रही है जिससे इस क्षेत्र में कार्य कर रहे लोग निरुत्साहित होते जा रहे हैं। कम बजट आवंटित होने से महिलाओं की एक बहुत बड़ी संख्या और उनके परिवार को रोजी-रोटी के लाले पड़ गए हैं। यह बहुत बड़ी विडम्बना है कि सरकार हथकरघा उद्योग के उत्पादन के आंकड़ों की तुलना पावर लूम सेक्टर से करती है। मुद्रा स्कीम के तहत 50 हजार रूपये से लेकर दस लाख रूपये तक के ऋण की सुविधा बुनकरों के लिए उपलब्ध है। इस प्रधानमंत्री मुद्रा योजना में भी बिचौलियों और दलालों के कारण कुछ बुनकरों को कर्ज तो मिला लेकिन ऋण की राशि इतनी कम थी कि बुनकर इस उद्योग से संबंधित सारी मशीनरी नहीं खरीद पाए और वे अपना उत्पादन प्रारंभ नहीं कर पाए और इन पर कर्ज का बोझ और हो गया। नाबार्ड भी इस क्षेत्र में तुलनात्मक रूप से प्रतिवर्ष वित्त पोषण कम करता जा रहा है। सरकार के अनुसार बुनकरों के बच्चे जो इग्नू और एनआईओएस में स्कूलों और विश्वविद्यालयों में शिक्षा ग्रहण कर सकते हैं और उनकी फीस का 75 फीसदी भुगतान सरकार करेगी। यह योजना भी कागज़ पर अच्छी है। लेकिन क्या हकीकत में इन हथकरघा मजदूरों के बच्चे स्कूलों में पढ़ रहे हैं? इनके बच्चे स्कूलों में प्रवेश ले लेते हैं लेकिन बीच में पढ़ाई छोड़कर मजदूर बनने को मजबूर हो रहे हैं।

कोरोना वायरस और लॉकडाउन की वजह से बुनकर भुखमरी की कगार पर पहुँच गए हैं। हथकरघा उद्योग राष्ट्र की गौरवशाली धरोहर है। इस उद्योग का संरक्षण करना और बुनकर मजदूरों की मदद करना अब आवश्यक हो गया है, नहीं तो यह खूबसूरत कला विलुप्त हो जायेगी। यह उद्योग असंगठित क्षेत्र में होने के कारण यहाँ के बुनकर मजदूरों की माली हालत बहुत अधिक खस्ता है। इस हथकरघा उद्योग के बहुत सारे लोग मालिक से मजदूर बन गए हैं। कई बुनकरों ने सरकारी सहायता और प्रोत्साहन नहीं मिलने से दूसरे व्यवसाय की तरफ अपना रूख कर लिया हैं। इस उद्योग के लिए मशीनरी और संयंत्र के आधुनिकीरण की शीघ्र आवश्यकता है। जब तक इस क्षेत्र को सरकारी सहायता नहीं मिलेगी और सरकारी प्रोत्साहन प्राप्त नहीं होगा तब तक इस क्षेत्र के उद्योग पनप नहीं पाएंगे। इस उद्योग को आवंटित बजट की अधिकाँश राशि विपणन केंद्रों के निर्माण में खर्च हुई है। ये विपणन केंद्र सिर्फ शो पीस बन कर रह गए हैं। हथकरघा उद्योग को सहारे की जरूरत है। हथकरघा उद्योग के बुनकरों के भी कर्ज माफ़ होने चाहिए। हथकरघा उद्योग में दीर्घकालीन ढांचागत सुधार किये जाने की जरूरत है। हथकरघा क्षेत्र का पुनरुद्धार सरकार की प्राथमिकता में सबसे ऊपर होना चाहिए।

Check Also

रोजाना ये ड्राई फ्रूट खाने से ठंड में होने वाली कई बीमारियों में मिलेगी राहत…

सर्दियों में ड्राई फ्रूट्स खाने की अक्सर सलाह दी जाती है. ताकि स्वास्थ्य से जुड़ी …