चुनावी बॉन्ड से चंदे पर शेयरधारक क्यों अंधेरे में?

देवाशिष बसु
भारतीय स्टेट बैंक (एसबीआई) ने पिछले दिनों चुनावी बॉन्ड पर दो दस्तावेज में जानकारियां सौंपी। चुनावी बॉन्ड खरीदना पूरी तरह कंपनियों एवं उद्यमियों की इच्छा पर निर्भर था मगर प्रश्न यह है कि कोई कंपनी या इकाई अपनी मेहनत की कमाई स्वार्थ सिद्धि करने वाले राजनीतिज्ञों को क्यों दे? कंपनियां तभी ऐसा करती हैं जब उन पर दबाव डाला जाता है या कोई विशेष प्रोत्साहन दिया जाता है।
चुनावी बॉन्ड के जरिये आया स्वैच्छिक चंदा अधिक नहीं माना जा सकता। ऐसा इसलिए भी कहा जा सकता है कि बड़ी कंपनियों के नाम चंदा देने वाली इकाइयों की सूची से नदारद थे। इन दिनों भारत के उद्योग जगत की ज्यादातर बड़ी कंपनियां शेयर बाजार में सूचीबद्ध हैं। मगर कुछ क्षेत्रों की लगभग 100 कंपनियों ने चुनावी बॉन्ड के जरिये राजनीतिक दलों को चंदा दिया। चंदा देने वाली कंपनियों की सूची में कुछ ही बड़ी कंपनियां (निफ्टी 200 शेयर) शामिल थीं।
दानकर्ता कंपनियों की सूची में वेदांत (400 करोड़ रुपये से अधिक), भारती एयरटेल (198 करोड़ रुपये), टॉरंट पावर (106 करोड़ रुपये) और यूनाइटेड फॉस्फोरस (60 करोड़ रुपये) शामिल हैं। मगर इसमें शामिल ज्यादातर कंपनियों ने अपने मुनाफे की तुलना में काफी कम रकम चंदे के तौर पर दी है।
उदाहरण के लिए सन फार्मास्युटिकल्स ने पिछले साल 8,900 करोड़ रुपये शुद्ध मुनाफा अर्जित किया था मगर उसने मात्र 31.50 करोड़ रुपये (महज 0.3 प्रतिशत) राजनीतिक दलों को चुनावी बॉन्ड के जरिये दिए। महिंद्रा ऐंड महिंद्रा ने लगभग इतनी ही रकम (25 करोड़ रुपये) चंदे के रूप में दी।
अन्य कंपनियों में बजाज फाइनैंस (20 करोड़ रुपये), बजाज ऑटो (18 करोड़ रुपये), हीरो मोटर्स (20 करोड़ रुपये), टीवीएस मोटर्स (26 करोड़ रुपये), अल्ट्राटेक (35 करोड़ रुपये), मारुति सुजूकी (20 करोड़ रुपये) और पीरामल एंटरप्राइजेज (48 करोड़ रुपये) के नाम सूची में दर्शाए गए हैं।
इससे अधिक दिलचस्प बात यह है कि सूचीबद्ध बड़ी कंपनियों में एक बड़ी संख्या उनकी है जिन्होंने चुनावी बॉन्ड के जरिये चंदा नहीं दिया। इनमें रिलायंस इंडस्ट्रीज, आईसीआईसीआई बैंक, एचडीएफसी बैंक, कोटक बैंक, टाटा मोटर्स, टाटा स्टील, टाइटन और टाटा कंसल्टेंसी सर्विसेस (टीसीएस), इन्फोसिस, एचसीएल टेक्नोलॉजीज, विप्रो जैसी कंपनियां शामिल हैं। इस सूची में किसी भी बहुराष्ट्रीय कंपनी का नाम नहीं है और न ही निर्माण क्षेत्र की दिग्गज कंपनी लार्सन ऐंड टुब्रो दिखाई देती है। यह अलग बात है कि निर्माण क्षेत्र की कुछ कंपनियों ने चुनावी बॉन्ड के जरिये चंदा दिया है।
एक और प्रश्न यह है कि जिन कंपनियों ने चंदा दिया है उन्होंने शेयरधारकों को इसकी स्पष्ट जानकारी दी है या नहीं? मौजूदा समय में बाजार नियामक और स्टॉक एक्सचेंज अधिक से अधिक पारदर्शिता पर जोर दे रहे हैं जिसे देखते हुए चंदा देने वाली कंपनियों को स्पष्टीकरण के साथ इससे जुड़ी जानकारी अनिवार्य रूप से अपने शेयरधारकों को देनी चाहिए।
महिंद्रा ऐंड महिंद्रा, सिप्ला, भारती एयरटेल, पीरामल एंटरप्राइजेज जैसी बड़ी कंपनियों की वित्त वर्ष 2022-23 की सालाना रिपोर्ट का विश्लेषण करें तो इनमें चुनावी बॉन्ड का कहीं जिक्र नहीं है। वेदांत ने चंदे में दी रकम को ‘अन्य व्ययÓ में दिखाया है मगर एक फुटनोट लिखा है जिससे यह पता चलता है कि रकम चुनावी बॉन्ड खरीदने पर खर्च की गई है।
शेयरधारकों के समक्ष पूरी पारदर्शिता बरतना उन कंपनियों के मामले में और भी आवश्यक हो जाता है जो आरोपों या किसी जांच का सामना कर रही हैं। कई बड़ी कंपनियों के नाम चंदा देने वाली इकाइयों की सूची में नहीं हैं मगर दिलचस्प है कि सभी सूचीबद्ध दवा कंपनियां और कई अन्य गैर-सूचीबद्ध कंपनियां के नाम सूची में शामिल हैं।
इनमें कई कंपनियां कर वंचना, खराब गुणवत्ता वाली दवाओं या अधिक कीमत वसूलने के लिए कार्रवाई (कुछ वाजिब तो कुछ कथित रूप से गैर-वाजिब) का सामना कर रही हैं।
चुनावी बॉन्ड से चंदा देने वाले बड़े नामों में दिवीज लैबोरेट्रीज (55 करोड़ रुपये), सिप्ला (39.20 करोड़ रुपये), एल्केम लैबोरेटरीज (15 करोड़ रुपये), डॉ. रेड्डीज (84 करोड़ रुपये), सन फार्मा और मैनकाइंड फार्मा (24 करोड़ रुपये) शामिल हैं। इनमें किसी भी कंपनी ने चुनावी बॉन्ड के बारे में अपने शेयरधारकों के समक्ष बड़े खुलासे नहीं किए हैं।
चुनावी बॉन्ड के गहन विश्लेषण से पता चलता है कि कंपनियां डर या किसी तरह के फायदे-प्रोत्साहन (ठेका, परियोजना या ऑर्डर मिलने में सहूलियत) के लिए चंदा दे रही हैं। इसमें कोई शक नहीं कि राजनीतिक दलों और कंपनियों के बीच अव्यवस्थित बातचीत की वजह से यह आसानी से पता नहीं चलता कि चंदा दबाव या प्रोत्साहन के कारण दिया गया है।
कारण जो भी हो किसी भी सूरत में शेयरधारक और नागरिक दोनों ही अंधेरे में रखे जाते हैं। उदाहरण के लिए सरकार के पूंजीगत व्यय पर विचार करते हैं। केंद्र सरकार सड़क, पुल, स्वच्छता, पेयजल, रेल आधुनिकीकरण और ऊर्जा पर भारी भरकम पूंजीगत व्यय कर रही है। इन परियोजनाओं के लिए बोली प्रक्रिया कुछ निश्चित मानदंडों पर आधारित होती हैं मगर सदैव इनका अनुपालन नहीं होता है।
कंपनियां पूंजी के रूप में बड़े पैमाने पर नकद रकम का इस्तेमाल भी करती हैं। मेघा इंजीनियरिंग (1,200 करोड़ रुपये) की अगुआई में पिची रेड्डी की चार कंपनियां इस सूची में दूसरी सबसे बड़ी दाता के रूप में सामने आई हैं। ऐसी खबरें हैं कि मेघा इंजीनियरिंग ने कई मौकों पर चुनावी बॉन्ड खरीदे हैं। ये सभी बड़ी परियोजनाओं का ठेका लेने से ठीक पहले खरीदे गए हैं।
सूची में निर्माण क्षेत्र की एक अन्य बड़ी कंपनी बी जी शिरके कंस्ट्रक्शन ने चुनावी बॉन्ड खरीद कर 117 करोड़ रुपये दान में दिए। कंपनी को महाराष्ट्र में एक बड़ी सस्ती आवास परियोजना और दूसरे सौदे प्राप्त हुए। तो खुलासे को लेकर क्या किया जा सकता है, कम से कम सूचीबद्ध कंपनियों के मामले में? आईएफबी एग्रो ने अपनी सालाना रिपोर्ट 2022-23 में पूरी पारदर्शिता बरती है।
ऐसे उदाहरण यदा-कदा ही मिलते हैं। कंपनी ने कहा है, ‘कारोबार को लगातार कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है। पहले भी इसका उल्लेख किया गया है। कारोबार में निरंतरता बनाए रखने और सभी शेयरधारकों के हितों की रक्षा के लिए कंपनी ने इस साल चुनावी बॉन्ड खरीदने पर 18.30 करोड़ रुपये खर्च किए। कंपनी ने अप्रैल 2023 में चुनावी बॉन्ड खरीदने पर 15 करोड़ रुपये और खर्च किए। कुल मिलाकर 2021 से आईएफबी एग्रो ने चुनावी बॉन्ड के मद में 92 करोड़ रुपये दिए हैं।’
आईएफबी एग्रो पश्चिम बंगाल में परिचालन करती है। पश्चिम बंगाल में राजनीतिक रूप से ताकतवर लोगों का समूह कारोबारी गतिविधियों को अपनी मर्जी के अनुसार चलाता है। इनमें कर्मचारियों की नियुक्ति, ठेकेदार और आपूर्तिकर्ताओं का चयन और नियमित भुगतान संग्रह आदि शामिल हैं। 26 जून 2020 को और फिर 22 दिसंबर 2020 को आईएफबी एग्रो ने स्टॉक एक्सचेंज को बताया कि 24 परगना जिले में इसकी डिस्टलरी पर लगभग 150 गुंडों ने हमला किया था।
उन्होंने डिस्टिलरी को जबरन बंद करा दिया, कर्मचारियों को पीटा और उन्हें बंधक बनाया। पुलिस से इस घटना की शिकायत की गई मगर कुछ नहीं हुआ। कंपनी ने कहा कि उसके एल्कोहल कारोबार को इसलिए नुकसान पहुंचाया गया क्योंकि वह ‘कुछ उत्पाद कर अधिकारियों की अनुचित मांगोंÓ के आगे नहीं झुकी।
चूंकि, कंपनी की शिकायत पर कोई कार्रवाई नहीं की गई इसलिए आईएफबी एग्रो ने चंदा देने के कारण का सार्वजनिक रूप से खुलासा कर दिया। दूसरी सूचीबद्ध कंपनियां भी आईएफबी एग्रो की तरह साहस क्यों नहीं दिखा सकतीं? अगर सूचीबद्ध कंपनियां अपने कारण नहीं बताना चाहतीं तो उनके पास एक और विकल्प उपलब्ध है और वह है किरण मजूमदार शॉ की राह पर चलना।
शॉ दो सूचीबद्ध कंपनियों (सिनजीन और बायोकॉन) का संचालन करती हैं। दोनों ही कंपनियों ने चुनावी बॉन्ड नहीं खरीदे हैं। मगर शॉ ने अपने व्यक्तिगत खाते से 6 करोड़ रुपये का चंदा दिया। प्रवर्तक-प्रबंधक स्वयं को करोड़ों रुपये वेतन के रूप में लेते हैं इसलिए उनके लिए व्यक्तिगत रूप से चंदा देना मुश्किल नहीं है। ऐसा कर वे शेयरधारकों की रकम तो बचाते ही हैं, साथ ही उन्हें अंधेरे में भी नहीं रखते हैं।

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