जलवायु जनित आपदाओं से उबरने के लिए स्थायी समाधान नहीं है मुआवजा, एक्सपर्ट व्यू

द ब्लाट न्यूज़ सिर्फ 3.14 लाख की आबादी वाले देश वनुआतु में कांफ्रेंस आफ पार्टिज (सीओपी)-27 के बाद जश्न जैसा माहौल है। दक्षिण प्रशांत महासागर में स्थित इस देश ने तीन दशक पहले जलवायु जनित आपदाओं से उबरने के लिए मुआवजे (लास एंड डैमेज फंड) की मांग की थी।

 

 

मिस्र के शर्म अल-शेख में सीओपी-27 में उसकी यह मांग पूरी हुई है। जलवायु मुआवजे को दुनिया भर के छोटे देश अस्तित्व के लिए निर्णायक करार दे रहे हैं। वहीं विकासशील इसे अमीर देशों की जवाबदेही बता रहे हैं। 1995 में बर्लिन से शुरू हुए जलवायु सम्मेलनों के सालाना आयोजन पर पूरी दुनिया की नजर रहती है। इस अंतरराष्ट्रीय मंच पर जलवायु के नकारात्मक बदलावों को कम करने के लिए वैश्विक साझेदारियां की जाती हैं। यह अंतरराष्ट्रीय भागीदारी आर्थिक मदद, तकनीक और विशेषज्ञता के आदान-प्रदान पर केंद्रित होती है। जलवायु सम्मेलनों में बनी सहमतियां अंतरराष्ट्रीय संधियों और समझौतों की शक्ल लेती हैं। सीओपी-27 को दुनिया भर के राष्ट्राध्यक्षों ने संबोधित किया। जलवायु परिवर्तन को कूटनीति के रूप में इस्तेमाल करने वाले अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन जलवायु दूत जान कैरी का महिमामंडन करते नजर आए। ब्रिटेन के प्रधानमंत्री ऋषि सुनक जिस अंदाज में सम्मेलन से बाहर आए, उसने ब्रिटेन के हल्केपन को उजागर किया। यूरोपीय संघ ने बार-बार सम्मेलन से अलग होने की चेतावनी देकर समझौते पर अपनी शर्तों को थोपने की पूरजोर कोशिश की। बारबाडोस की प्रधानमंत्री मिआ मोटले ग्रीनहाउस उत्सर्जन के लिए अमीर देशों पर खूब बरसीं। उन्होंने सवाल किया कि खाया और पचाया आपने तो अब कचरा समेटने की जवाबदेही हम पर क्यों? मोटले के इस संबोधन में ही जलवायु संकट के मुद्दे पर ग्लोबल साउथ और ग्लोबल नार्थ ध्रुव में बंटी दुनिया के गणित को समझा जा सकता है। धरती और इसके वातावरण को बचाने जैसे महान उद्देश्य के लिए खेमेबंदी की चुनौती को कम करने के लिए ही सीओपी-27 का ध्येय वाक्य ‘क्रियान्वयन के लिए एकजुटता’ रखा गया था। सीओपी-27 के दौरान जलवायु वित्त, इंटर पैनल आन क्लाइमेट चेंज (आइपीसीसी) की ताजा रिपोर्ट, डिकार्बनाइजेशन, जलवायु न्याय में महिलाओं की भूमिका, ऊर्जा एवं जल सुरक्षा, जैव विविधता के साथ सामुदायिक भागीदारी पर चर्चा हुई। अंतत: जलवायु सम्मेलन का 27वां संस्करण छोटे और द्वीपीय देशों की उस जीत के लिए याद किया जाएगा, जो लास एंड डैमेज फंड की स्थापना के रूप में प्राप्त हुई। इस मांग को भारत, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका जैसे विकासशील देशों ने नेतृत्व प्रदान किया। जलवायु संकट से सबसे ज्यादा पीड़ित 58 देशों के समूह ने इसके लिए असरदार गोलबंदी की। 1.5 अरब की कुल आबादी वाले इस समूह की कार्बन उत्सर्जन में कुल हिस्सेदारी महज पांच प्रतिशत है। यही वजह है कि यह समूह विकसित देशों द्वारा हानि और क्षति के मुद्दे पर निर्णायक फैसले के लिए डटा रहा।

लास एंड डैमेज थ्योरी में ‘हानि’ (लास) जलवायु परिवर्तन से आधारभूत संरचनाओं जैसे सड़क, घर, बंदरगाह आदि को होने वाले नुकसान का आकलन करती है। वहीं ‘क्षति’ (डैमेज) को जलवायु परिवर्तन से उत्पादकता को हुए नुकसान के लिए इस्तेमाल किया गया है। तापमान में अप्रत्याशित वृद्धि से कामकाज के घंटों में कमी, कृषि उत्पादकता में गिरावट से लेकर पर्यटन गतिविधियों में कमी इसके प्रमुख उदाहरण हैं। जलवायु परिवर्तन से आने वाली आपदाओं से उबरने के लिए तय की गई हानि और क्षति का बजट (लास एंड डैमेज फंड) जलवायु वित्त (क्लाइमेट फंड) से अलग है। यह एक तरह से मुआवजे की शक्ल में मांगी जा रही वह राशि है, जो विकासशील, छोटी और उभरती अर्थव्यवस्थाएं जलवायु परिवर्तन के नकारात्मक प्रभावों से बाहर आने के लिए मांग रही हैं। सबसे पहले 2007 में संयुक्त राष्ट्र ने हानि और क्षति के सिद्धांत को बाली एक्शन प्लान के जरिये संज्ञान में लिया। फिर 2013 के वारसा जलवायु सम्मेलन में हाइयान तूफान से बेघर लोगों के लिए इसी फार्मूले के जरिये मदद की मांग उठी। हालांकि 2015 में पेरिस समझौते के दौरान यह सिर्फ आह्वान तक सीमित रहा। फिर 2019 में मैड्रिड जलवायु सम्मेलन के दौरान जलवायु मुआवजे को लेकर तकनीकी आकलन कार्यक्रम बना। मौजूदा समय में संयुक्त राष्ट्र और कुछ डेवलपमेंट बैंक बदलते जलवायु के असर से प्रभावित देशों की मदद करते हैं। एक रिपोर्ट के मुताबिक लास एंड डैमेज फार्मूले को अपनाने के लिए 2030 तक 580 अरब डालर की जरूरत होगी।

स्काटलैंड जलवायु मुआवजे के लिए 79 लाख डालर की रकम तय करने वाला पहला देश है। जर्मनी 17 करोड़, आयरलैंड एक करोड़ और आस्ट्रेलिया पांच करोड़, बेल्जियम ने 25 लाख, डेनमार्क 1.2 करोड़ डालर देने का वादा कर चुके हैं। हैरानी दुनिया में सबसे ज्यादा प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन करने वाले अमेरिका, रूस (दूसरा सबसे बड़ा प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जक), ब्रिटेन और यूरोपीय संघ जैसे देशों के रवैये से है। पहले उन्होंने लास एंड डैमेज फंड का पुरजोर विरोध किया। यह फंड गठित हुआ तो जलवायु वित्त पर पूरी तरह खामोश हैं। सवाल है कि लास एंड डैमेज का फार्मूला क्रियान्वित कैसे होगा? इस फंड के लिए क्या सिर्फ स्वैच्छिक दानदाताओं पर निर्भर रहना पड़ेगा? इसे खर्च कब और कैसे किया जाएगा? इन प्रश्नों के जवाब खोजे बिना सीओपी-27 की उपलब्धियां ढाक के तीन पात जैसी न हो जाएं। ऐसा इसलिए भी, क्योंकि मिस्र जलवायु सम्मेलन के दौरान विकासशील देशों को हर साल दिए जाने वाले न्यूनतम 100 अरब डालर के जलवायु वित्त पर सन्नाटा ही पसरा रहा। शर्म अल-शेख में चीन का रवैया भी हैरान करने वाला रहा। विश्व का तीसरा सबसे बड़ा कार्बन उत्सर्जक (प्रति व्यक्ति) ड्रैगन खुद के लिए जलवायु मुआवजा मांग रहा है। यूरोपीय देशों को चीन के इस रुख पर आपत्ति है। कुछ यही हाल वेनेजुएला और तेल से मोटी कमाई करने वाले अरब देशों का भी रहा। तेल के सबसे बड़े उत्पादक देश जलवायु मुआवजे को खैरात में मिल रहे धन जैसा मान रहे हैं। कुल मिलाकर जलवायु से हुई हानि और क्षति के लिए मुआवजा हासिल करना छोटे और विकासशील देशों के लिए कुछ समय के लिए राहत भरा कदम हो सकता है, लेकिन जलवायु संकट के ठोस समाधान के लिए विश्व बिरादरी को यह तय करना होगा कि प्राकृतिक आपदाओं के असर को कम करने के बजाय उसकी वजह के समाधान पर जोर दें। इसके लिए कार्बन उत्सर्जन में कटौती ही एक कारगर एवं टिकाऊ उपाय है।

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