जानें कैसे ‘फिल्में और संस्कृति’ के जरिए सिनेमा से प्रभावित हो रहा राष्ट्रीय चरित्र

सिनेमा को समाज का दर्पण कहा जाता है। वहीं समाज और संस्कृति एक दूसरे के पूरक माने जाते हैं। ऐसे में सिनेमा के माध्यम से समाज एवं संस्कृति की अभिव्यक्ति का मुद्दा अत्यंत महत्वपूर्ण है। भारतीय प्रबंध संस्थान, रोहतक के निदेशक प्रो. धीरज शर्मा ने अपनी सद्यप्रकाशित पुस्तक ‘फिल्में और संस्कृति’ में इसी मुद्दे की पड़ताल की है। पुस्तक की टैगलाइन ‘भारतीय मूल्यों का प्रचार या दुष्प्रचार’ से भी स्पष्ट होता है कि सिनेमा के संदर्भ में भारतीय मूल्य एवं संस्कृति ही लेखक की कसौटी के केंद्र में रही है।

लेखक ने हिंदी फिल्म उद्योग यानी बालीवुड के स्याह पक्षों को उकेरा है। इनमें धर्म का विकृत स्वरूप प्रस्तुत करना, ड्रग्स और अपराध का महिमामंडन, अश्लील भाषा को बढ़ावा देना और यहां तक कि राष्ट्रविरोधी विमर्श को हवा देना तक शामिल है। उनका मानना है कि ऐसी गलत प्रस्तुतियों ने हमारे सामाजिक तानेबाने को भी बिगाड़ा है। फिल्मों की ‘साफ्ट पावर’ यानी सांस्कृतिक शक्ति पर प्रकाश डालते हुए इसमें कई बिंदुओं पर प्रकाश डाला गया है। इस क्रम में पुस्तक बताती है कि फिल्में राष्ट्रीय चरित्र को कैसे प्रभावित करती हैं। इसका प्रत्येक अध्याय एक विशिष्ट विषय को समर्पित है। इनमें फिल्मों के आलोक में समाज, रूढि़वादिता, धर्म, किशोरों पर प्रभाव, भद्दी भाषा का प्रयोग, ड्रग्स एवं हिंसा और समाज पर लोकप्रिय संगीत जैसे पहलुओं की थाह ली गई है। इनमें व्यापक तुलनात्मक उदाहरण भी दिए गए हैं, जो बताते हैं कि हालीवुड कैसे अमेरिकी जीवन शैली और अमेरिकी स्वप्न को वैश्विक स्तर पर स्थापित करने में सफल रहा है। उसके विपरीत बालीवुड न केवल ऐसा करने में विफल रहा, बल्कि उत्तरोत्तर उसके कंटेंट में गिरावट भी देखी जा रही है।

पुस्तक पढ़ते हुए आभास होता है कि इसकी विषयवस्तु विशुद्ध यथार्थ और वर्तमान के साथ सहबद्ध है। जैसे इन दिनों चर्चित कश्मीर के मसले को लेकर बालीवुड की उदासीनता पर प्रो. शर्मा लिखते हैं, ‘पिछले सदी के नौवें दशक के उत्तरार्ध में कश्मीरी उग्र्रवाद पर ‘रोजा’ और ‘मिशन कश्मीर’ जैसी कई फिल्में बनीं’, लेकिन उनमें से किसी ने भी कश्मीर की वास्तविक तस्वीर पेश नहीं की। एक भी फिल्म ने हिंदुओं और मुसलमानों के बीच संघर्ष की सच्चाई नहीं दिखाई, जो कि लाखों हिंदुओं के बेघर होने और पलायन करने की असल वजह थी।’ इसी तरह शाह रुख खान के बेटे आर्यन खान का ड्रग्स मामले में पकड़ा जाना भी फिल्म उद्योग और नशे की दलदल के बीच स्थायी दुरभिसंधि का संकेत करता है। इस विषय पर भी लेखक ने बहुत गहराई से कलम चलाई है। इसमें ‘ड्रग्स लॉड्र्स’, ‘पाब्लो एस्कोबार’ से लेकर हिंदी में बनीं ‘उड़ता पंजाब’ और ‘संजू’ की केस स्टडी दी गई है।

लेखक ने हिंदी फिल्मकारों के कुछ स्टीरियोटाइप में जकड़े होने को लेकर भी सवाल उठाए हैं। जैसे कि मंदिर के पुजारियों का मखौल उड़ाना, शिक्षकों को अक्षम दिखाना, सभी नेताओं को दुष्ट बताना, समूचे पुलिस तंत्र को निर्दयी ठहराना और यहां तक कि हिंदी बोलने वालों का उपहास उड़ाना तक शामिल है। उनका एक प्रश्न इस पहलू को लेकर भी है कि अगर हीरो हिंदू है तो वह अपने धर्म को उपेक्षित करते हुए दिखाया जाता और यदि मुस्लिम है तो अपने धर्म को लेकर बेहद प्रतिबद्ध रूप में प्रस्तुत किया जाता है। इसी प्रकार ‘वास्तव’, ‘संजू’, ‘सिंघम’, ‘सरकार’ और ‘सैक्रेड गेम्स’ जैसी फिल्मों के उदाहरणों के माध्यम से प्रश्न उठाया गया है कि उनमें जितने भी नकारात्मक पात्र दिखाए गए हैं, उन सभी ने हिंदू प्रतीक धारण किए हुए हैं। इसके पीछे एक पूर्वनियोजित धारणा वजह के रूप में दिखती है।

 

पुस्तक में व्यापक स्तर पर लिए गए संदर्भ ग्र्रंथों और और केस स्टडी का समावेश है। कई अवधारणाओं की पुष्टि के लिए शोध का भी सहारा लिया गया है। इससे पुस्तक काफी प्रामाणिक बन गई है।

कुल मिलाकर, इस पुस्तक के माध्यम से बालीवुड को अपनी जिम्मेदारी निभाने का मार्ग दिखाने के लिए लेखक साधुवाद के पात्र हैं। फिल्म और संस्कृति के अध्येताओं को यह रुचिकर एवं विचारोत्तेजक लगेगी।

पुस्तक : फिल्में और संस्कृति

लेखक : धीरज शर्मा

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन

मूल्य : 400 रुपये

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