एक साथ चुनाव,आम सहमति जरूरी

अजीत द्विवेदी

विपक्ष की लगभग सभी पार्टियों ने ‘एक देश, एक चुनावÓ के आइडिया का विरोध किया है। भाजपा और केंद्र सरकार के प्रति नरम रुख दिखाने वाली मायावती की बहुजन समाज पार्टी ने केंद्र की बनाई रामनाथ कोविंद कमेटी को अपनी राय भेजी है, जिसमें पार्टी ने कहा है कि वह पूरे देश में सारे चुनाव एक साथ कराने के विचार का विरोध करती है। इससे पहले सभी विरोधी पार्टियों ने ऐसी ही राय कोविंद कमेटी को दी है।
चुनाव आयोग ने इसका समर्थन किया है और साथ ही सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी ने इसका समर्थन किया है। उसकी सहयोगी जनता दल यू ने कोविंद कमेटी से कहा है कि वह लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराए जाने के विचार से सहमत है लेकिन चाहती है कि स्थानीय निकायों के चुनाव अलग हों। मुद्दों के आधार पर केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार को समर्थन देने वाली बीजू जनता दल ने भी इस विचार का समर्थन किया है।
कुल मिला कर इस मसले पर राजनीतिक दलों का वैसा ही विभाजन है, जैसा भारतीय राजनीति में दिख रहा है। भाजपा विरोधी पार्टियां इस विचार का विरोध कर रही हैं तो भाजपा और उसके साथ एनडीए में शामिल घटक दल इसका समर्थन कर रहे हैं। मुद्दों पर आधारित समर्थन देने वाली पार्टियां भी इस विचार से सहमत हैं। इस स्पष्ट विभाजन के बीच कहा जा रहा है कि रामनाथ कोविंद कमेटी अपनी रिपोर्ट तैयार कर रही है, जिसे जल्दी ही सरकार को सौंप दिया जाएगा। इस रिपोर्ट में कमेटी ‘एक देश, एक चुनावÓ शीर्षक से एक अलग खंड संविधान में जोडऩे की सिफारिश करने वाली है।
उस खंड में एक साझा मतदाता सूची के आधार पर देश के सारे चुनाव एक साथ कराने के नियम और कानून होंगे। ध्यान रहे कोविंद कमेटी में विपक्ष का कोई सदस्य नहीं है। कमेटी बनाते समय लोकसभा में सबसे बड़े विपक्षी दल कांग्रेस के नेता अधीर रंजन चौधरी को इसका सदस्य बनाया गया था लेकिन उन्होंने कमेटी और इस विचार का विरोध करते हुए इस्तीफा दे दिया था। सो, बिना किसी विपक्षी सदस्य के और तमाम विपक्षी पार्टियों के विरोध के बीच कमेटी ने अपनी सिफारिश तैयार की है, जो अगले हफ्ते सरकार को सौंपे जाने की खबर है।
इस मामले में एक और दिलचस्प बात यह है कि रामनाथ कोविंद कमेटी ने ‘एक देश, एक चुनावÓ के आइडिया पर देश के लोगों की राय मांगी थी। कमेटी को सिर्फ 21 हजार लोगों ने अपनी राय भेजी। सोचें, 140 करोड़ की आबादी और करीब एक सौ करोड़ मतदाता वाले देश में सिर्फ 21 हजार लोगों ने कमेटी को अपनी राय भेजी, जिसमें से 81 फीसदी ने इस विचार का समर्थन किया। इसके बरक्स विधि आयोग ने समान नागरिक संहिता के मुद्दे पर देश के लोगों की राय मांगी थी तो करीब 50 लाख लोगों ने अपने सुझाव कमेटी को भेजे थे।
एक तरफ 50 लाख सुझाव और दूसरी ओर 21 हजार सुझाव! सवाल है कि क्या इस आधार पर तैयार रिपोर्ट को देश के आम मतदाताओं की सामूहिक सोच का प्रतिनिधित्व माना जा सकता है? इतने बड़े मसले पर फैसला करने या कोई भी राय बनाने के लिए क्या सरकार को और ज्यादा प्रयास करने की जरुरत नहीं है?
ध्यान रहे विपक्षी पार्टियां इस देश में ज्यादा मतदाताओं की राय का प्रतिनिधित्व करती हैं। अगर बीजू जनता दल और वाईएसआर कांग्रेस जैसी पार्टियों को सरकार के साथ मान लें, तब भी ‘एक देश, एक चुनावÓ के विचार का विरोध करने वाली पार्टियां 50 फीसदी से ज्यादा वोट का प्रतिनिधित्व करती हैं। देश के बड़े राज्यों में इन पार्टियों की सरकार है।
दक्षिण के पांच राज्यों में से चार में सरकार चला रही पार्टियों ने इस विचार का विरोध किया है। दक्षिण में कर्नाटक और तेलंगाना में कांग्रेस की सरकार है, जबकि तमिलनाडु में डीएमके और केरल में लेफ्ट मोर्चे की सरकार है। कांग्रेस, डीएमके और लेफ्ट तीनों ने इस विचार का विरोध किया है। क्या दक्षिण के राज्यों के विरोध को पूरी तरह से दरकिनार करके सरकार पूरे देश में एक साथ चुनाव कराने का फैसला कर लेगी?
इसी तरह पश्चिम बंगाल में सरकार चला रही तृणमूल कांग्रेस ने इसका विरोध किया है तो झारखंड में सत्तारूढ़ झारखंड मुक्ति मोर्चा ने भी इस विचार का विरोध किया है। दिल्ली और पंजाब में सरकार चला रही आम आदमी पार्टी ने ‘एक देश, एक चुनावÓ के विचार पर आपत्ति जताई है। भाजपा और उसकी सहयोगी पार्टियों के शासन वाले राज्यों की मुख्य विपक्षी पार्टियों ने इस विचार के विरोध में अपनी राय कोविंद कमेटी को भेजी है। कांग्रेस हो या डीएमके और तृणमूल कांग्रेस हो या आम आदमी पार्टी, राजद, जेएमएम या समाजवादी पार्टी हो सबने यह कहते हुए इस विचार का विरोध किया है कि यह लोकतंत्र के लिए अच्छा नहीं है।
पार्टियों ने इसे संविधान द्वारा बनाए गए संघीय ढांचे के प्रतिकूल कहा है। हालांकि सरकार का तर्क है कि आजादी के बाद तीन लोकसभा चुनावों तक ऐसा होता रहा था। लेकिन सबको पता है कि 1967 में यह चक्र टूट गया और उसके बाद से देश की राजनीतिक परिस्थितियां बहुत बदल गई हैं। अब हालात 1952 या 1957 या 1962 वाले नहीं हैं। देश में बहुदलीय प्रणाली है, जिसके तहत बड़ी संख्या में पार्टियां चुनाव लड़ती हैं और समय के साथ हर राज्य की एक अनोखी सामाजिक व राजनीतिक व्यवस्था विकसित हुई है।
अगर इसमे एकरुपता लाने की कोशिश होती है तो उससे विविधता और बहुलता को भी नुकसान होगा और साथ ही संघवाद की धारणा भी प्रभावित होगी। पूरे देश में एक राष्ट्रीय नैरेटिव पर चुनाव कराना भारत जैसे विशाल और विविधता वाले देश के लिए ठीक नहीं है। अगर पहले तीन चुनाव में ऐसा हुआ है तो उसके 60 साल बाद जरूरी नहीं है कि उस व्यवस्था को लौटा लाया जाए।
मतदाताओं की व्यापक भागीदारी के बिना अगर सरकार अपनी मर्जी से एक देश, एक चुनाव के विचार को लागू करती है तो यह लोकतंत्र को कमजोर करने वाला होगा।

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