मूलभूत सिद्धांत की पुष्टि

कोर्ट ने कहा कि कम्युनिस्ट या माओवादी साहित्य लिखना, या इंटरनेट से ऐसी सामग्रियों को डाउनलोड करना अपराध नहीं है। मुकदमा चलाने के लिए ऐसा ठोस सूबत होना अनिवार्य है कि संबंधित व्यक्ति हिंसा या आतंकवाद की गतिविधि में सक्रिय रूप से शामिल हुआ।
बॉम्बे हाई कोर्ट ने भारतीय संविधान के तहत नागरिकों को मिले अभिव्यक्ति के मौलिक अधिकार की फिर पुष्टि की है। हाई कोर्ट की नागपुर बेंच ने इसी बुनियादी सिद्धांत के आधार पर दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर जीएन साईबाबा को यूएपीए के तहत दर्ज मामले से बरी किया है। स्पष्टत: कोर्ट ने किसी नए सिद्धांत की स्थापना नहीं की है। ना ही उसने कानून की कोई नई व्याख्या की है।
अतीत में सर्वोच्च न्यायालय दो टूक लहजे में ऐसी व्याख्याएं कर चुका है। लेकिन हाल के वर्षों में देश में जैसा माहौल रहा है, उसके बीच हाई कोर्ट का ताजा निर्णय मील के पत्थर की तरह महसूस होता है। कोर्ट ने कहा कि कम्युनिस्ट या माओवादी साहित्य लिखना, अथवा इंटरनेट पर मौजूद ऐसी सामग्रियों को डाउनलोड करना अपराध नहीं है। ऐसी गतिविधियों के कारण किसी पर अभियोग लगाया जाएगा, तो यह संविधान के अनुच्छेद 19 का उल्लंघन होगा।
दो जजों की बेंच ने कहा कि मुकदमा चलाने के लिए इस बात का ठोस सूबत होना अनिवार्य है कि संबंधित व्यक्ति हिंसा या आतंकवाद की गतिविधि में सक्रिय रूप से शामिल हुआ। कोर्ट ने ध्यान दिलाया कि इंटरनेट पर नक्सली या कम्युनिस्ट नजरिए वाली सामग्रियों को ढूंढना एक आम चलन है। लोग चाहें तो ऐसी सामग्रियां स्कैन या डाउनलोड कर सकते हैं। इनमें ऐसे वीडियो भी शामिल हैं, जिन्हें हिंसक प्रकृति का माना जाएगा।
चूंकि साईबाबा और पांच अन्य लोगों पर ऐसी ही गतिविधियों में शामिल होने का आरोप लगाते हुए उनके खिलाफ यूएपीए लगा दिया गया था, इसलिए कोर्ट ने मामले को खारिज कर दिया। इस बीच ये पांचों लोग पांच साल से अधिक समय जेल में गुजार चुके हैं। अब यह जाहिर है कि उन्हें ऐसे आरोप में जेल में रखा गया, तो असल में भारतीय संवैधानिक व्यवस्था के तहत जुर्म नहीं है। इस रूप में उनके लिए न्याय की प्रक्रिया ही दंड बन गई। दुर्भाग्यपूर्ण है कि ऐसा अनगिनत अन्य व्यक्तियों के साथ भी हो रहा है। अगर न्यायपालिका आज भी जमानत को नियम और जेल को अपवाद मानने के सिद्धांत से प्रेरित रहती, तो शायद इस स्थिति से बचा जा सकता था।

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