महिला सशक्तिकरण और आरक्षण में फर्क है

अजीत द्विवेदी
संसद के विशेष सत्र में दोनों सदनों से पास होने के बाद महिला आरक्षण बिल, जिसे नारी शक्ति वंदन अधिनियम नाम दिया गया है उस पर राष्ट्रपति के भी दस्तखत हो गए हैं यानी यह कानून बन गया है। जब से यह कानून संसद से पास हुआ तब से कोई दर्जन भर राजनीतिक रैलियों और सरकारी कार्यक्रमों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसे ऐतिहासिक बताते हुए यह दावा किया है कि विपक्षी पार्टियां इतने बरसों से इसे पास नहीं करा पाई थीं लेकिन महिला सशक्तिकरण के लिए प्रतिबद्ध उनकी सरकार ने इसे कानून बनवाया है। अब महिलाओं को आगे बढऩे से कोई नहीं रोक सकता है, ऐसा दावा किया जा रहा है। हालांकि कानून कब लागू होगा, उसकी कोई समय सीमा तय नहीं है। 2029 के लोकसभा चुनाव से लेकर 2039 तक की समय सीमा का दावा किया जा रहा है। सरकार ने महिला आरक्षण को जनगणना और परिसीमन के साथ जोड़ दिया है। सो, जब ये दोनों काम होंगे उसके बाद आरक्षण लागू होगा। आरक्षण लागू होने का समय कब आएगा इस बारे में पहले काफी कुछ लिखा जा चुका है।
अब सवाल है कि क्या महिला आरक्षण जब भी लागू होगा तब सिर्फ उसके दम पर महिलाएं सशक्त हो जाएंगी? क्या इससे राजनीति में उनकी भूमिका ऐसी हो जाएगी कि वे अपने हिसाब से राजनीति को संचालित कर सकें? इन सवालों के जवाब बहुत मुश्किल नहीं है। लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33 फीसदी आरक्षण की व्यवस्था लागू होने से लोकसभा और विधानसभाओं में महिला सांसदों व विधायकों की संख्या तो जरूर बढ़ जाएगी लेकिन राजनीति में उनकी भूमिका बढ़ जाएगी, यह नहीं कहा जा सकता है। संख्या में बढ़ोतरी इस बात की गारंटी नहीं है कि महिलाएं पार्टी के राजनीतिक मामलों में निर्णायक भूमिका निभाने लगेंगी या उनकी मर्जी के बगैर पार्टियों में फैसले नहीं होंगे। अगर ऐसा होता तो आज सभी पार्टियों में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के नेता निर्णायक होते।
आखिर दशकों से लोकसभा में अनुसूचित जाति के लिए 84 और अनुसूचित जनजाति के लिए 47 यानी कुल 131 सीटें आरक्षित हैं। यह कुल संख्या का 24 फीसदी है। यानी लोकसभा में एक चौथाई सीटें एससी और एसटी के लिए आरक्षित हैं। अनुसूचित जाति व जनजाति के इतने लोकसभा सांसद अलग अलग पार्टियों से जीत कर आते हैं। लेकिन क्या कोई यह दावा कर सकता है कि संसद में एससी और एसटी सांसद निर्णायक भूमिका निभाते हैं या अपनी पार्टियों में उनकी भूमिका इतनी अहम होती है कि उनके बगैर फैसला नहीं हो? यही स्थिति महिला आरक्षण की व्यवस्था लागू होने के बाद भी रहेगी। लोकसभा में महिला सांसदों की और राज्यों की विधानसभाओं में महिला विधायकों की संख्या बढ़ जाएगी लेकिन सिर्फ इतने भर से उनकी भूमिका नहीं बढ़ जाएगी, उनका राजनीतिक सशक्तिकरण नहीं हो जाएगा। आरक्षण से वे पार्टियों में महत्वपूर्ण हो जाएंगी ऐसा नहीं कहा जा सकता है। उनके सांसद या विधायक बनने से समाज में महिलाओं का सशक्तिकरण हो जाएगा ऐसा भी नहीं कहा जा सकता है। अगर ऐसा होता है तो दशकों से जारी आरक्षण की व्यवस्था से अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों का कल्याण हो चुका होता या स्थानीय निकायों में आरक्षण से महिलाएं ही राजनीतिक रूप से इतनी सशक्त हो गई होतीं कि उनको आगे की राजनीति के लिए आरक्षण की जरूरत नहीं होती। लेकिन हकीकत यह है कि आजादी के बाद से अनुसूजित जाति व जनजाति के लोगों की शैक्षणिक व सामाजिक स्थिति में बहुत कम अंतर आया है और उनकी राजनीतिक ताकत तो अब भी हाशिए पर है। यही स्थिति कमोबेश महिलाओं की भी है।
ऐसा इसलिए है क्योंकि पार्टियां आरक्षण के कानून की मजबूरी में उनको टिकट तो देती हैं लेकिन उनको सशक्त बनाने के लिए काम नहीं करती हैं। उनको पार्टी के अंदर फैसला करने वाले अहम निकायों में जगह नहीं दी जाती है। उनकी राजनीतिक भूमिका नहीं बढ़ाई जाती है। उनको राजनीतिक रूप से सशक्त बनाने का काम नहीं किया जाता है। इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या हो सकता है कि बहुजन आंदोलन में अग्रणी रहीं बसपा प्रमुख मायावती ने भी अपनी पार्टी के अंदर न तो महिलाओं को आगे बढ़ा कर सशक्त किया और न अनुसूचित जाति के नेताओं को आगे बढ़ा कर उनको सशक्त बनाया। वे ऐसी भूमिका में थीं और उनके हाथ में इतनी ताकत थी कि वे एक साथ महिला और दलित दोनों का कल्याण कर सकती थीं। लेकिन इस देश की राजनीतिक व्यवस्था की जो मजबूरियां हैं उनकी वजह से वे भी बने बनाए ढर्रे पर चलती रहीं। हालांकि यह जरूर है कि पिछले 75 साल से भारत में चल रही लोकतांत्रिक व्यवस्था में दलित, आदिवासी, पिछड़े, महिलाएं, अल्पसंख्यक आदि वोट बैंक के रूप में उभरे हैं और चुनावों के समय पार्टियां इसी रूप में इनको एड्रेस करती हैं और उनका इस्तेमाल करती हैं।
इसलिए महिला आरक्षण अपने आप में इस बात की गारंटी नहीं है कि महिलाओं का राजनीतिक या सामाजिक रूप से सशक्तिकरण हो जाएगा। हां, यह जरूर है कि इससे एक आगाज होगा। लेकिन उस आगाज को अंजाम तक पहुंचाने का काम तो अंतत: राजनीतिक दलों को ही करना होगा। चाहे भाजपा हो या कांग्रेस या कोई क्षेत्रीय पार्टी हो अगर पार्टियां महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए प्रतिबद्ध हैं तो उनको अपनी पार्टी के अंदर महिलाओं को निर्णायक भूमिका में लाना होगा और यह काम सिर्फ संख्या बढ़ाने से नहीं होगा। इसके लिए पार्टियों को अपने आंतरिक ढांचे में सुधार करना होगा। महिला काडर तैयार करना होगा। उनके राजनीतिक शिक्षण और प्रशिक्षण की व्यवस्था करनी होगी। ऐसी व्यवस्था बनानी होगी कि राजनीतिक और विचारधारात्मक प्रशिक्षण के साथ महिलाएं स्वाभाविक रूप से आगे आएं। वे मुख्यधारा की राजनीति में अपनी जगह बनाएं और भूमिका निभाएं।
यह तभी होगा, जब पार्टियों के शीर्ष पुरुष नेता उनको अपने से कमतर मानना बंद करेंगे। उनकी संख्या दिखाने या उन पर अहसान करने या उनका वंदन करने के लिए उनको आगे बढ़ाने की मानसिकता छोड़ेंगे। जब राजनीतिक व्यवस्था में उनको बराबरी की भूमिका मिलेगी और उनका आकलन भी उनकी योग्यता के आधार पर होगा तभी उनका सशक्तिकरण संभव है। यह कहने से काम नहीं चलेगा कि इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री हो गईं या जयललिता, मायावती राबड़ी देवी, शीला दीक्षित, ममता बनर्जी या वसुंधरा राजे मुख्यमंत्री बनीं। इनमें एक ममता बनर्जी को छोड़ दें तो बाकी सब किसी न किसी बड़े राजनीतिक परिवार से थीं या किसी न किसी नेता ने उनको आगे बढ़ाया। यह भारत की नहीं पूरे दक्षिण एशिया की कहानी है।
बहरहाल, महिला आरक्षण जरूरी है और इसका कानून बनना स्वागतयोग्य है। लेकिन यह नहीं माना जाना चाहिए कि इतने भर से महिलाओं का सशक्तिकरण हो जाएगा। उनका सशक्तिकरण तब होगा, जब स्वाभाविक रूप से राजनीति में उनके आगे बढऩे की व्यवस्था बनेगी। पार्टियों के ढांचे में सुधार होगा। ऐसा नहीं होना चाहिए कि जिस नेता की सीट आरक्षण में आ गई उसके परिवार की महिलाओं को उस सीट से टिकट दे गई। इससे स्थानीय निकायों की तरह मुखिया पति या सरपंच पति वाली व्यवस्था लोकसभा व विधानसभाओं तक पहुंचेगी। कायदे से तो महिला आरक्षण तुरंत लागू होना चाहिए था लेकिन देर से लागू होने में भी इसमें एक सिल्वर लाइनिंग यह देखी जा सकती है कि पार्टियां अगले कुछ बरसों का इस्तेमाल महिला काडर और महिला नेतृत्व तैयार करने के लिए करेंगी।

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