पांच सदी पुराने मंदिर में विरोजती है मां काली

कानपुर, संवाददाता। इतिहास से जुडी अनेकों अध्यात्मिक कथाओं को संजोये कानपुर नगर के मध्य स्थित बहुचर्चित स्थान प्रयाग नारायण शिवाला लगभग कानपुर सेन्ट्रल से दो किमी की दूरी पर स्थित है। यह बाजार देव पूजन, सामग्री, श्रृंगार वस्त्र और विशेषकर पुष्प बिक्री के लिये नगर ही नही अपितु सम्पूर्ण प्रदेश में अपनी विशिष्ठ पहचान रखता है। यही नही यहां कई ऐतिहासिक मंदिर है और यहीं की कुंज बाडी, के बंगाली मोहाल में स्थित है मां दक्षिणेश्वर काली जी की विशाल प्रतिमा वाला लगभग पांच सदियों पुराना यह मंदिर। कानपुर नगर की प्राचीन कला से ही ऐतिहासिक स्थली रहा यह स्थान कालांतर में कान्हापुर के नाम से जाना जाता था। अग्रेजी शासनकाल में यह नाम बदलकर कानपुर हो गया। मंदिर के बारे में कोई भी प्रमाणित इतिहास के दस्तावेज न होते हुये भी यह मंदिर की शिल्पकला यह बताती है कि यह मंदिर पांच सौ वर्ष से भी अधिक पुराना है। इस मंदिर के वर्तमान संरक्षक एवं पुजारी पं० रविनाथ बनर्जी बतातें है कि कालांतर में जब यहां पाचं सौ वर्ष पूर्व जब यहां धना जंगल हुआ करता था तो उस समय गंगा जी की धारा मंदिर तक पहुंचती थी। उसी तट पर साधू अपना आश्रम बनाकर तप किया करते थे। उसी काल में मां काली के एक भक्त को मां ने स्वपन में अपनी उपस्थिति का ज्ञान कराया दूसरे ही दिन उस कुटुम्ब में यह चर्चा का विषय रहा। उक्त जगह की खुदाई कराई गयी तो यहां मां की एक विशाल प्रतिमा प्रकट हुई। बाद में उस ब्राम्हण ने यहां एक मंदिर बनवा दिया।


धीरे-धीरे इस स्थान की महिमा बढी और सदी के अंतराल के बाद अपनी ही इष्इ देवी के रूप में मानने वाले 23 परगना और 24 परगना के बंगाली समुदाय के लोग आकर बस गये और मां की सेवा करने लगे। सन् 1826 ई0 में इसी समुदाय के एक सदस्य पं0 उमेश चन्द मुखर्जी ने इस मंदिर का जीणोद्वार कराया और यहां मां की पिण्डी के साथ नौ फिट की मां दक्षिणेश्वर काली की स्थापना करायी और वह पिण्डी उसकी जगह नीचे स्थापित की। कोलकाता के काली घाट, आसाम के तारापीठ और उसके अलावा कानपुर के बंगाली मोहाल कालीबाडी में सिर्फ मां का पंचमुडी आसन है और इसके अलावा सम्पूर्ण भारत में और काई विग्रह नही है।

बहुप्रसिद्ध इस मंदिर की कई है अनूठी परम्पराऐ- जिसमें मन्नत का ताला बांधने की प्रथा बडी अनूठी है। कहते है कि माता से अपनी मनौती मनवाने के लिये भक्त मां के दरबार की ध्वजा में ताला बांधते है इसका मतलब होता है कि मां को वचनबद्ध कर देना। भक्त मन्नत पूरी होने पर पूजन और अनुष्ठान करवाता है और मां का श्रृगार भी तथा ताला लगाने की प्रथा के बारे में पुराजी जी ने बताया कि यह प्रथा लगभग 50 वर्ष पूर्व विस्तार हुआ तब से यह परम्परा अनवरत चल रही है। ताला लगाने के बाद एक चाभी मां को अर्पित की जाती है और एक चाभी भक्त अपने पास रखता है जबतक उसकी मनोकामना पूर्ण नही हो जाती। मंदिर में लगे लाखों ताले भक्तों की अट््टू श्रृद्धा की प्रवाह को दर्शाते है। प्रतिदिन सैकडों ताले रोज खोले और बांधे जाते है। मंदिर के पुजारी रविन्द्र नाथ बनर्जी बताते है कि यहां मां की विशेष रूप से पूजा प्रत्येक माह की आमवस्या और विशेष पूजा दिवाली की मध्य रात्रि में की जाती है। इस रात्रि में मां को पांच जीवों की बलि दी जाती है जिसमें प्रथम जीव प्रतीक रूप में गन्ना, कुम्हणा, काले रंग का बकरा, चौथा भैंसा, पंचम नारियल की बलि होती है। साथ ही मां को 56 प्रकार के भोग लगाये जाते है जिसमें मां का प्रीय भोग खिचडी और मेवे की खीर है। देश विदेश से लगभग सभी स्थानों सेे लाखों की संख्या में नवरात्र में यहां भक्त दर्शन को आते है। तांत्रिकों का मानना है कि जप, तप व तंत्र सिद्धि के लिये यह एक दिव्य व जाग्रत स्थान है।


पं0 रविन्द्रनाथ बनर्जी- अपने परिवार को मंदिर की संरक्षणता में दसवी पीढी मानते है। उन्होने बताया कि उनके दादा औरपर दादा ने उनसे पहले मां की सेवा की व अब यह मौका उन्हे तथा उनकी आनेवाली पीढियों को मिल रहा है। उनके दो बेटे आलोक व आकाश बनर्जी भी मां की सेवा में रत रहते है। पेशे से इंजीनियर रहे बनर्जी मां की सेवा में अपने आप को धन्य मानते है और कहते है कि जो व्यक्ति इस दरबार में सच्चे भाव से आया वह कभी खाली नही लौटा। मां के दरबार में एक तत्थपूर्ण रहस्य और भी है कि किसी भी असाध्य रोग वाला व्यक्ति यदि मां के खड्ग का जल प्राप्त करता है व सप्तमी, अष्टमी, नौवमी को मां के दर्शन करता है तो उसे रोग मुक्ति मिलती है।

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