-वीरेन्द्र सिंह परिहार-
जब भारतवर्ष करीब-करीब 1857 के स्वतंत्रता की लड़ाई हार चुका था, और पूरे देश में अंग्रेजों का पुन: अधिपत्य हो गया था। उस दौर में भी अपने जीवन के अंतिम दस महीनों तक तात्या टोपे कैसे संघर्षरत रहे? वह एक अंग्रेज लेखक के शब्दों में ”फिर पीछे हटने का वह अनोखा क्रम आरंभ हो गया, जो दस माह तक चलता रहा। किन्तु तात्या टोपे भी पराजय का उपहास उड़ाता जाता था और उसका नाम यूरोप भर में अनेक एग्लों-इण्डियन सेनापतियों की अपेक्षा अधिक प्रसिद्ध हो गया था।उसे पराजित एशियावासियो की सेना को संगठन-सूत्र में आबद्ध करना था, जिसका उससे कोई व्यक्तिगत संबंध भी नहीं था। ऐसी अस्त-व्यस्त सेना को एकता के सूत्र मे ंपिरोकर उसे येन-केन-प्रकारेण आगे बढ़ना पड़ता था। वह भी इतनी तीव्र गति से कि उसका पीछा करने वाले शत्रु स्तंभित हीं नहीं रह जाते थे, बल्कि दांतों तले उंगली भी दबा लेते थे। अपने इस अर्ध संगठित गिरोह के उन्मादियो के तुल्य दौड़ाते रखने के साथ ही तात्या को अनेक नगरो पर अपनी विजय-पताका फहरानी पड़ी, अनेक स्थानों से रसद आदि जुटानी पड़ी, नई तोपों को हथियाना पड़ता था। तो जनता से ही नए स्वयं सेवक भी अपने साथ लगाने पड़ते थे, जिन बेचारों के भाग्य में प्रतिदिन ही साठ मील की दौड़ लगाना लिखा होता था। इन सभी कार्यो को यथा उपलब्ध साधनो के बलबूते पर पूर्ण करने में ही तात्या की असाधारण क्षमता प्रगट होती है। यदि वह अपनी योजना को पूर्णत: क्रियान्वित करने में सफलता प्राप्त कर लेता और नागपुर में घुसकर मद्रास की ओर निकल जाता तो वह भी हैदरअली के सदृश ही वीभत्स शत्रु बन जाता। नेपोलियन को जिस प्रकार इंग्लिश चैनल ने रोक दिया था, उसी प्रकार नर्मदा ने तात्या को रोक लिया था। नर्मदा पार कर पाने के अतिरिक्त वह और सब कुछ कर लेने में सफल हो गया। अंग्रेजी सेनाओं का जब वेग से बढना आ भी गया, तब भी वह तात्या की आधी गति को ही प्राप्त कर पाएं । इस पर भी वह बच निकला और सर्दी, गर्मी तथा वर्षा से टकराता हुआ भागता ही रहा- कभी दो हजार सैनिकों, तो कभी पन्द्रह हजार सैनिकों के साथ।”
तात्या टोपे का जन्म 18 अप्रैल 1859 को महाराष्ट्र में नासिक के निकट येवाला ग्राम में हुआ था। इनका पूरा नाम रामचन्द्र पांडुरंग टोपे था। पिता का नाम पाडुरंग टोपे और माता का नाम रूकमणि बाई था। यह बिठूर के नाना साहब के बहुत नजदीकी सहयोगी थे, और उनके सेनापति थे। सन 1857 में स्वतंत्रता की लड़ाई में नाना और तात्या ने कानपुर पर अंगेजों को भगाकर कब्जा कर लिया, पर इलाहाबाद से आकर अंग्रेज सेनापति हैवलाक ने फिर से कानपुर को जीत लिया। 1857 में कानुपर में अपनी सेना के हार के बाद नाना साहब और तात्या टोपे दोनों रात बारह बजे के आसपास ब्रम्हावर्त में आ गए। इसी दौरान नाना के साथ शिवराजपुर की 42वीं रेजीमेन्ट आ गई। यद्यपि अंग्रेज सेनापति हैवलाक के साथ हुई लड़ाई में तात्या हार गए। इस पर वह गंगा नदी उतरकर फतेहपुर आकर नाना से मिल गए। इसी बीच तात्या टोपे गुप्त रीति से ग्वालियर जाकर अपने साहस और बुद्धिमता से वहां की मुरार छावनी की पैदल, घुडसवार और तोपखाना आदि लेकर कालपी आ गए। कालपी में कुछ सेना छोड़कर तात्या कानपुर की अंग्रेजी सेना को मात देने का विचार करने लगे। सर कोलिन लखनऊ मुक्त कराने चला गया था और ख्यातिप्राप्त जनरल बिंडहम सेना के साथ कानपुर में था। ऐसी स्थिति में तात्या शिवराजपुर तक चढ़ आए, और 19 नवम्बर को अंग्रेजी रसद का मुख्य रास्ता बंद कर दिया। अंग्रेजो की सिर्फ हिन्दुस्तान के संदर्भ मे ंनही नहीं पूरे एशिया के संदर्भ में यह धारणा थी कि सशक्त न होने पर भी पीछे न हटते हुए तेजी से उन पर टूट पडें तो एशियाटिक लोंगों की आंखे चौंधिया जाती है, और वे घबराकर इधर-उधर भागने लगते है। इस सैन्य धारणा का उपयोग अंग्रेजों ने कितनी ही बार किया और अधिकतर वह सफल रहे। ऐसी शिक्षा पायात्र जनरल बिहडंम कानपुर शहर से निकलकर कालपी के बाजू की नहर के पुल तक हमला किया। लेकिन तात्या टोपे के घुड़सवारों के दबाव में गोरी सेना कानपुर तक पीछे हट गई। दूसरे दिन तोपों की भयंकर लड़ाई शुरू हुई। शाम छ: बजे तक अंग्रेजी सेना पूरी तरह हार गई। अंग्रेजी सेना के हजारों तंबू, छोलदारियों बैल, रसद और पोशाक विद्रोहियों के हाथ लगे। अंग्रेज इतिहासकारों तक का यह कहना है कि यदि तात्या जैसे सेनापति की सेना भी उतनी ही कर्तव्यनिष्ठ और संगठित होती तो इस मराठे ने उस दिन जरनल बिहंडम की पूरी सेना काट डाली होती। 28 नवम्बर को फिर दोनो पक्षों में लड़ाई शुरू हुई। अंग्रेज बारह बजे के बाद अपनी रणनीति के तहत सीधे शत्रु पर टूट पडें। लेकिन यह तात्या की सेना थी, उसने कई अंग्रेज सेनापतियों की मौत की नींद सुला दिया और अंग्रेजी सेना को पीछे भगाकर तीसरे दिन यह तीसरी विजय प्राप्त की। कल आधा शहर लिया तो आज तात्या ने पूरा कानुपर शहर कब्जे में ले लिया। चार्ल्स बाल ने लिखा कि -”घृणित एवं तुच्छ कह जाने वाले भारतीयों ने उनके तंबू और सामग्री ही नहीं, प्रतिष्ठा का भी अपहरण कर लिया था। अब हमारे शत्रुओं को पराजित फिरंगी कहने का अधिकार प्राप्त हो गया। यह संपूर्ण घटना नितांत लज्जाजनक और विषाद पूर्ण है। “
अब तात्या की सेनाएं मैदान से हटकर बेतवा नदी के समीप वनखण्ड में जा घुसी थी और दूसरी ओर सिरोंजनगर के पास आ निकली थी। लेकिन नर्मदा नदी तात्या का रास्ता रोक रही थी। क्योकि जब इतनी अंग्रेज सेनाएं तात्या के पीछे लगी हो तो फिर नर्मदा को कैसे पार किया जा सकता था? फिर भी तात्या किसी तरह किसी तरह नर्मदा तट तक पहुंचा और अंतत: नर्मदा को लांघ ही लिया। मैलासन ने लिखा-”तात्या ने जिस जीवट और हठसहित अपनी योजना क्रियान्वित की, उसकी प्रशंसा न कर पाना असंभव है।“ इस तरह से होशंगाबाद के समीप नर्मदा नदी को पार कर तात्या नागपुर के समीप पहुंच जाता है। इस समाचार से सिर्फ भारत में ही नहीं, सिर्फ इग्लैण्ड में ही नहीं, सम्पूर्ण यूरोप में एक ही स्वर निनादित हो उठा -धन्य तात्या, धन्य टोपे! हैदराबाद का निजाम और अंग्रेज थर्रा उठे। पर दुर्भाग्य! यदि एक वर्ष पूर्व तात्या नर्मदा को पार कर पाता तो दृश्य कुछ और ही होता, क्योकि अब तक राष्ट्र शिथिल और संज्ञाविहीन हो चुका था।
नागपुर में स्वयं मराठों के प्रदेश में भी लोग तात्या का सहयोग करने में भय महसूस करते थे। अब तात्या के समक्ष निजाम का राज्य था। लेकिन चारों तरफ से अंग्रेजों की सेनाएं दक्षिण का द्वार बंद करने के लिए बढ़ रही थी। ऐसी स्थिति में अब तात्या की दृष्टि बड़ौदा की ओर थी। आगरा रोड से होता होकर अंग्रजों की डाक-गाडियों को लूटता, तारयंत्रों को तोड़ता और अंगजी सेनाओं का झांसा देता हुआ तात्या नर्मदा की ओर बढ़ता रहा। नदी के दोनो घाटों पर शत्रु सेना डटी हुई थी। यहां पर तात्या का मेजर सदरलैण्ड से जमकर संघर्ष हुआ। युद्ध जब चरम पर था तो तात्या ने अपने सैनिको को आदेश दिया कि तत्काल गोली वर्षा बंद कर दो और नर्मदा में कूद पड़ो।
अभी अंग्रेज यह विचारने में ही लगे थे कि यह क्या हो रहा है, और दूसरी ओर तात्या अपने सैनिकों सहित नर्मदा को पार कर गया। यह प्रसंग आज तक के युद्धों के इतिहास में एक नवीन आश्चर्यजनक घटना के रूप में स्मरण किया जाता है। बडौदा मात्र पचास मील दूर रह गया था, पर अंग्रेजों की सेनाए चारो ओर से तात्या को घेरने का प्रयास कर रही थी। अत: तात्या को बडौदा जाने का विचार छोडकर बांसवाडा के जगलों में प्रवेश करना पड़ा। इसी बीच बादा के नवाब ने आत्म समर्पण कर दिया। किन्तु तात्या और राव सा0 ने इस विचार को अपने पास फटकने तक न दिया। एक अंग्रेज ग्रंथकार ने लिखा -”किन्तु ये व्यक्ति थे, जो घोर संकटपूर्ण परिस्थिति में भी निंतात शाति, वीरता और धैर्य सहित अपने जीवन के इस प्राणांतक संषर्घ का सामना करते रहे। तात्या से इस दौरान इन्द्रगढ में अवध के शाहजादे फिरोजशाह से भेंट हुई, वह किसी तरह देवास तक गया। यहां पर भी अंग्रेज सैनिक ने उसे पूरी तरह घेर लिया। पर तात्या छूमंतर जैसे हो गया। तात्या किसी तरह अलवर से सीकर ग्राम पहुंचे परन्तु यहां भी अंग्रेज सेनापति होम्स से उनकी मुठभेड हुई, जिसमें क्रांतिकारी पराजित हुये। बाद में प्रतिकार को निरर्थक समझकर तात्या ने दो अश्व, एक टट्टू, दो रसोइए और एक नौकर के साथ अपनी सेना से बिदा ले-ली। और वह पारौन के वनों में शरण ले रहे ग्वालियर के सरदार मान सिंह के पास पहुंच गया। जिसकी सूचना किसी तरह से अंग्रेजों को मिल गई। उन्होने मान सिंह को लालच देकर उसे अपनी ओर मिला लिया। इधर तात्या, मान सिंह के भरोसे फीरोजशाह ही छावनी में भी नहीं गया, जिसका उसे निमंत्रण मिला था। उधर मान सिंह अंग्रेज सैनिकों के साथ पारौन के जंगल में पहुंचा और प्रगाढ़ निद्रा में लीन तात्या को बंदी बना लिया। अंग्रेजों ने तात्या टोपे को फांसी का दण्ड सुना दिया। तात्या ने फांसी के तख्ते पर शीघ्रता से पहुंच कर फांसी के फंदे को हार के समान अपने गले में पहन लिया।
इस अवसर पर महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी वीर सावरकर ने 1857 के स्वातंत्रय समर में लिखा -” वध-मंच रक्त से सरोवर हो गया, तो सम्पूर्ण देश के नेत्रों से अश्रुधाराएं प्रवाहित हो उठी। समग्र हिन्दुस्तान अश्कों से भींग गया। स्वदेश की सेवा के लिए तात्या ने महान और अवर्णनीय कष्टों को सहन किया था। उसे इस देश भक्ति का परितोषिक एक विश्वासघाती द्वारा उसके साथ किए गए विश्वासघात और नीचता के रूप में मिला था। अंग्रेजों ने उसे किसी रक्त-पिपासु दस्यु के समान वध-स्तंभ पर लटकाया था। हे महावीर तात्या! तुमने इस अभागे देश में जन्म ही क्यों ग्रहण किया?