राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के सरसंघचालक मोहन भागवत ने दिल्ली स्थित हरियाणा भवन में मुस्लिम धर्मगुरुओं और बुद्धिजीवियों के साथ एक बंद कमरे में महत्वपूर्ण बैठक की। इस बैठक का आयोजन ऑल इंडिया इमाम ऑर्गनाइजेशन (AIIO) के प्रमुख इमाम अहमद इलियासी द्वारा किया गया था। बैठक में देशभर से आए लगभग 60 मुस्लिम मौलवियों, मस्जिदों के प्रमुखों और अल्पसंख्यक समुदाय के चिंतकों ने हिस्सा लिया। बैठक का मुख्य उद्देश्य “सांप्रदायिक सौहार्द” को बढ़ावा देना और “नफरत की दीवारों” को समाप्त करना बताया गया। तीन घंटे से अधिक चली इस चर्चा में मोहन भागवत और मुस्लिम नेताओं के बीच विचारों का आदान-प्रदान हुआ।
देखा जाये तो इस बैठक का समय बेहद महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह आरएसएस की स्थापना के 100 वर्ष और ऑल इंडिया इमाम ऑर्गनाइजेशन के 50 वर्ष पूरे होने के वर्ष में आयोजित की गई। यह केवल एक संवाद नहीं, बल्कि प्रतीकात्मक संदेश भी है कि देश के दो परस्पर भिन्न धार्मिक ध्रुवों के बीच भी संवाद से समाधान निकाला जा सकता है। अहमद इलियासी ने इसे एक “ऐतिहासिक पहल” बताया और संकेत दिया कि भविष्य में ऐसे और संवाद आयोजित होंगे।
हम आपको बता दें कि यह पहली बार नहीं है जब मोहन भागवत ने मुस्लिम समुदाय के साथ संवाद की कोशिश की हो। 2019 में वे जमीयत उलमा-ए-हिंद के प्रमुख मौलाना सैयद अरशद मदनी से आरएसएस कार्यालय में मिले थे। 2022 में वे पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एस.वाई. कुरैशी के नेतृत्व में आए मुस्लिम प्रतिनिधिमंडल से भी मुलाकात कर चुके हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि मोहन भागवत मुस्लिम समुदाय के साथ एक संवादात्मक रिश्ता कायम रखने में रुचि रखते हैं।
हालाँकि यह पहल सांप्रदायिक सौहार्द के दृष्टिकोण से सराहनीय प्रतीत होती है, किंतु इसके राजनीतिक और रणनीतिक अर्थ भी हैं जिन्हें नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। जब विपक्ष धार्मिक ध्रुवीकरण के मुद्दे पर सरकार को घेर रहा है, ऐसे समय में यह मुलाकात राजनीतिक दृष्टिकोण से भी अहम मानी जा रही है। हम आपको बता दें कि आरएसएस और भाजपा को अक्सर मुस्लिम विरोधी धारणाओं से जोड़ा जाता है। ऐसे में मुस्लिम धर्मगुरुओं के साथ इस प्रकार की बैठकों का आयोजन कहीं न कहीं संगठन की छवि को उदार और संवादात्मक दर्शाने की कोशिश भी हो सकता है।
यदि यह बैठक केवल औपचारिक पहल न रहकर, जमीनी स्तर पर लागू होती है और इसके परिणामस्वरूप धार्मिक समुदायों के बीच सचमुच संवाद और सहयोग का माहौल बनता है, तो यह भारतीय समाज के लिए एक सकारात्मक मोड़ सिद्ध हो सकता है। देखा जाये तो मोहन भागवत और मुस्लिम धर्मगुरुओं की यह मुलाकात सांप्रदायिक एकता की दिशा में एक सराहनीय पहल है। परंतु इसकी सफलता इस बात पर निर्भर करेगी कि क्या यह संवाद समुदायों के भीतर भी फैलता है या नहीं। भारत जैसे विविधता वाले देश में संवाद ही वह सेतु है जो अलग-अलग मान्यताओं को जोड़ सकता है। अब देखना यह है कि यह सेतु स्थायी बनता है या केवल एक “फोटो-ऑप” साबित होता है।
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