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सुप्रीम कोर्ट के बचाव में यह बात कही जा सकती है कि कानून बनाना उसके दायरे से बाहर है। सभी लोगों के लिए ऐसी व्यवस्था हो और परिवार अदालतें भी सुप्रीम कोर्ट की भावना से संचालित हों, उसके लिए विधायी व्यवस्था संसद को करनी होगी।
कोई समाज कितना सभ्य है, इसे मापने का एक पैमाना यह माना जाता है कि वहां मतभेद या विवादों को किस तरह से हल किया जाता है। सभ्य समाजों में संवाद और सहमति से समाधान ढूंढने की प्रवृत्ति अपेक्षाकृत अधिक रहती है। जबकि सभ्यता की कसौटी पर पिछड़े समाजों हर मसला झगड़े और हिंसा में बदल जाता है। यह बात दो व्यक्तियों के रिश्तों पर भी लागू होती है। मसलन, पति और पत्नी में अगर ना बनती हो, तो वे समाधान किस तरह निकालते हैं, यह काफी कुछ सामाजिक संस्कृति और परिपाटी से निर्धारित होता है। दुर्भाग्य से इस कसौटी पर भारतीय समाज की तस्वीर फिलहाल बहुत उत्साहवर्धक नहीं है। इस पृष्ठभूमि में सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ का यह निर्णय स्वागतयोग्य और प्रशंसनीय है कि वह उन मामलों में तलाक के पक्ष में निर्णय देने के लिए संविधान से मिले अपने विशेष अधिकार का उपयोग करेगा, जिनमें सुलह कोई गुंजाइश ना बची हो। लेकिन इस निर्णय की सीमा यह है कि इसका लाभ सिर्फ उन लोगों को मिल पाएगा, जो सुप्रीम कोर्ट तक जाने की क्षमता रखते हों।
स्पष्ट है कि ऐसी क्षमता वाले लोगों की संख्या इस देश में बेहद सीमित है। इसलिए सुप्रीम कोर्ट की इस नई व्यवस्था का लाभ बहुत कम लोग उठा पाएंगे। इस बिंदु पर सुप्रीम कोर्ट के बचाव में यह बात कही जा सकती है कि कानून बनाना उसके दायरे से बाहर की बात है। सभी लोगों के लिए ऐसी व्यवस्था हो और परिवार अदालतें भी सुप्रीम कोर्ट की भावना से संचालित हों, उसके लिए विधायी व्यवस्था संसद को करनी होगी। लेकिन हकीकत यह है कि भारतीय संसद से फिलहाल ऐसी अपेक्षा जोडऩा निराधार है। असल में अगर संसद ने समाज के नए तकाजों को समझने की क्षमता दिखाई होती, तो सुप्रीम कोर्ट को संविधान के अनुच्छेद 142 का इस्तेमाल तलाक जैसे साधारण मामले में नहीं करना पड़ता। मगर दुर्भाग्यपूर्ण यही है कि तलाक जैसा साधारण मामला हमारे समाज एक अति विशिष्ट है, जिसकी प्रक्रिया दुरूह, ऊबाऊ और कष्टदायक है। बहरहाल, यह अवश्य कहा जाएगा कि इस प्रक्रिया को आसान बनाने की एक राह सुप्रीम कोर्ट ने दिखाई है।
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