द ब्लाट न्यूज़:
[यह नतीजे बिहार की सियासत के लिए काफी अहम माने जा रहे हैं, क्योंकि तीन महीने पहले ही मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भाजपा के साथ गठबंधन तोड़कर महागठबंधन की सरकार बना ली थी।]
बिहार के 17 नगर-निगमों में महापौर, उप महापौर और पार्षदों के परिणाम आ गए हैं। इन नतीजों ने हर किसी को हैरान कर दिया है। ये भले ही दलगत चुनाव नहीं थे, लेकिन इन नतीजों से खासतौर पर बिहार की सत्ता में काबिज महागठबंधन को बड़ा सियासी संदेश मिला है। नतीजों पर नजर डालें तो गया को छोड़कर 16 शहरों में महिलाएं महापौर बनी हैं। वह भी तब, जब केवल सात सीटें ही महिलाओं के लिए आरक्षित थीं। मतलब इस बार नगर निकाय चुनाव में महिलाओं का डंका बजा है।
यह नतीजे बिहार की सियासत के लिए काफी अहम माने जा रहे हैं, क्योंकि तीन महीने पहले ही मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भाजपा के साथ गठबंधन तोड़कर महागठबंधन की सरकार बना ली थी। ऐसे में इन नतीजों को आगामी लोकसभा और फिर विधानसभा चुनाव के लिए एक बड़ा संदेश माना जा रहा है।
बिहार के 17 नगर निगमों में महापौर और उप महापौर के चुनाव हुए। इसके अलावा 49 नगर पंचायत और दो नगर परिषद में मुख्य पार्षद और उप-मुख्य पार्षद के लिए हुए चुनाव के नतीजे भी आ गए हैं। नतीजों पर नजर डालें तो जिन 17 नगर निगम में महापौर के लिए चुनाव हुए उनमें छह पर भारतीय जनता पार्टी समर्थित उम्मीदवारों की जीत हुई है। इनमें पटना में सीता साहू, भागलपुर में डॉ. वसुंधरा लाल, मुजफ्फरपुर में निर्मला देवी, कटिहार में उषा देवी अग्रवाल, आरा से इंदु देवी, छपरा से राखी गुप्ता शामिल हैं।
वहीं, महागठबंधन समर्थित गया के प्रत्याशी वीरेंद्र कुमार उर्फ गणेश पासवान, मोतिहारी की प्रीति गुप्ता, पूर्णिया की विभा कुमारी, मुंगेर की कुमकुम देवी और बेगूसराय की पिंकी देवी चुनाव जीती हैं। मतलब राजद, जेडीयू समर्थित उम्मीदवारों ने मिलकर चुनाव लड़ा फिर भी केवल छह प्रत्याशी ही महापौर बन पाए, जबकि भाजपा ने अकेले दम पर अपने छह प्रत्याशियों को महापौर बनवा दिया। उप महापौर की बात करें तो भाजपा समर्थित तीन और महागठबंधन समर्थित पांच प्रत्याशी चुनाव जीते हैं। ओवरऑल बिहार के चार बड़े नगर निगमों में से तीन पर इस बार भारतीय जनता पार्टी ने कब्जा जमा लिया है, जबकि महागठबंधन के खाते में सिर्फ एक नगर निगम गया है।
1. नीतीश का पाला बदलना गलत संदेश दे गया
2013 में जब भारतीय जनता पार्टी ने गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया तो नीतीश कुमार ने बिहार में भाजपा से नाता तोड़ लिया था। नीतीश सीपीआई के साथ चले गए थे और 2014 का लोकसभा चुनाव भी साथ लड़े थे। हालांकि, चुनाव के नतीजों ने नीतीश कुमार को बैकफुट पर ला दिया था। बिहार की 40 में से 31 लोकसभा सीटों पर भाजपा को जीत मिली थी। इसके बाद वापस नीतीश कुमार भाजपा के साथ आ गए थे। 2015 विधानसभा चुनाव के दौरान भी नीतीश कुमार ने यही किया।
उन्होंने भाजपा का साथ छोड़कर महागठबंधन का साथ पकड़ लिया। तब भी भाजपा ने अकेले दम पर महागठबंधन को टक्कर दी। हालांकि, उस दौरान भी नीतीश कुमार ज्यादा दिन तक महागठबंधन में नहीं रह पाए। 2017 आते-आते उन्होंने पाला बदल लिया और फिर भाजपा के साथ आ गए। इसके बाद 2020 में साथ में चुनाव लड़े और इस साल फिर एनडीए का साथ छोड़कर महागठबंधन में चले गए हैं। बार-बार नीतीश के पाला बदलने का गलत संदेश जनता के बीच गया। लोगों को लगा कि नीतीश कुमार केवल सत्ता में बने रहने के लिए ऐसा कर रहे हैं। यही कारण है कि वोटर्स भी अब महागठबंधन को कम पसंद करने लगा है।
नगर निकाय चुनाव में युवाओं का गुस्सा और शराब कांड का भी असर देखने को मिला। चुनाव से पहले रोजगार मांग रहे युवाओं पर बिहार की पुलिस ने लाठीचार्ज किया था। सत्ता में आने से पहले तेजस्वी यादव हमेशा रोजगार की बात करते थे। जब सत्ता मिली तो युवाओं पर लाठीचार्ज हो गया। इसका गलत संदेश पूरे प्रदेश के युवाओं के बीच गया और नतीजे सबके सामने हैं। इसी तरह बिहार शराब कांड ने भी महागठबंधन को भारी नुकसान पहुंचाया। शराबकांड से ज्यादा नीतीश कुमार के बयान ने लोगों को चोट पहुंचाई। बिहार के तीन जिलों में जहरीली शराब पीने से 60 से ज्यादा लोगों की मौत हो गई थी और मुख्यमंत्री ने बयान दिया था कि जो पीएगा, वो मरेगा। मरने वालों के लिए कोई सहानुभूति नहीं है। इस बयान ने लोगों को काफी तकलीफ पहुंचाई। लोगों का कहना था कि प्रदेश के मुखिया होने के नाते नीतीश कुमार को इस तरह से संवेदनहीन नहीं होना चाहिए। मरने वाला तो मर गया, लेकिन उनके परिवार का क्या दोष था? उन्हें क्यों नहीं सरकार ने कोई मदद दी? भाजपा ने भी इन दोनों मुद्दों को जोरशोर से उठाया और इसका फायदा भी भाजपा को मिला।
विश्लेषक कहते हैं कि नीतीश कुमार विपक्ष की तरफ से 2024 में प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनना चाहते हैं। यह कहा जाता है कि राजद और जदयू के बीच इसी बात को लेकर समझौता भी हुआ था। इस समझौते के मुताबिक, नीतीश कुमार 2024 से पहले केंद्र की राजनीति में चले जाएंगे और बिहार की सत्ता तेजस्वी यादव को सौंप देंगे। ऐसे में पहले कुढ़नी उपचुनाव और अब नगर निकाय के चुनावों ने महागठबंधन को एक तरह से बैकफुट पर लाने का काम किया है।