नई शिक्षा नीति को लागू करना है असम्भव…

द ब्लाट न्यूज़ । राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 की सिफारिशें बहुत शानदार है और इन सिफारिशों को बेहतर ढंग से अपनाकर हम देश में शिक्षा का परिदृश्य बदल सकते हैं, लेकिन सभी राज्यों में ऐसे बहुत से नियम व कानून हैं, जो राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के सफल कार्यान्वयन में बांधा बनेंगे। उपमुख्यमंत्री व शिक्षा मंत्री मनीष सिसोदिया ने ये बातें गुजरात के गाँधी नगर में शिक्षा मंत्रालय भारत सरकार द्वारा आयोजित दो दिवसीय ‘नेशनल कांफ्रेंस ऑफ़ स्कूल एजुकेशन मिनिस्टर्स’ कांफ्रेंस के दौरान कही।

डिप्टी सीएम मनीष सिसोदिया ने कहा कि नई शिक्षा नीति को एक नए क़ानूनी फ्रेमवर्क की जरुरत है। अन्यथा नई शिक्षा नीति केवल मार्गदर्शिका बनकर रह जाएगी और कभी व्यवस्था नहीं बन पाएगी। उन्होंने कहा कि तमाम क़ानूनी बाधाओं को दूर करने और नई शिक्षा नीति के सफल कार्यान्वयन के लिए नए संदर्भ के अनुसार क़ानून बने।

उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया ने कहा कि नई शिक्षा नीति के सामने दो बड़ी बाधाएं है। पहली बाधा पुराने चलते आ रहे नियम कानून हैं। आजादी के तुरंत बाद बनाए गए शिक्षा संबंधी कानूनों को अगर बारीकी से देखा जाए तो उनके कई नियम अब नई शिक्षा नीति के कार्यान्वयन में बाधा बनेंगे। उन्होंने बताया कि विभिन्न राज्यों के शिक्षा संबंधी कानूनों में कई नियम ऐसे है जो नई शिक्षा नीति के सिफारिशों के साथ मेल नहीं खाते है और उसके विपरीत है।

उन्होंने उदाहरण देते हुए बताया कि गुजरात के प्राइमरी एजुकेशन एक्ट 1961 में प्राथमिक शिक्षा अनिवार्य तो है लेकिन इसकी जिम्मेदारी पेरेंट्स को लेनी होगी। वही यहां प्राथमिक शिक्षा के अंतर्गत पहली से सातवीं कक्षा आती है। इस क़ानून में पाठ्यक्रम, ट्रेनिंग और मूल्यांकन का कोई ज़िक्र नहीं है।

इसी तरह 1960 में बना पंजाब में प्राइमरी एजुकेशन कानून भी कुछ ऐसा ही है, जहाँ पेरेंट्स को बच्चों को स्कूल भेजने के लिए बाध्य किया जा सकता है और न भेजने पर पेरेंट्स पर जुर्माना लग सकता है। उत्तर प्रदेश का 1972 में बना बेसिक शिक्षा एक्ट वहां की एजुकेशन बोर्ड की बात करता है तो 1952 में बना केरल का एजुकेशन एक्ट एडेड स्कूलों को रेग्युलेट करने की बात।

1973 में बना दिल्ली का एजुकेशन एक्ट मुख्यतः प्राइवेट स्कूलों की बात करता है और उसमें कॉर्पोरल पनिशमेंट को लेकर भी सुझाया गया है जो राइट तो एजुकेशन एक्ट 2009 के विपरीत है। उन्होंने कहा कि जब ये कानून बनाए गए थे, उस दौर के लिए ये आवश्यक हो सकते थे लेकिन वर्तमान परिदृश्य में ये बाधा के अलावा और कुछ नहीं है। इसलिए नई शिक्षा नीति को सफल बनाने के लिए एक नए क़ानूनी फ्रेमवर्क की जरुरत है।

डिप्टी सीएम मनीष सिसोदिया ने कहा कि नई शिक्षा नीति की दूसरी बाधा प्रैक्टिस लेगेसी से संबंधित है। उन्होंने कहा कि हम अपने नीतियों में समावेशी शिक्षा की बात करते है, पर क्या शिक्षक क्लासरूम में पाठ्यक्रम पूरा करने के दौरान इस बात की गारंटी लेता है कि क्लास का हर बच्चा सीख रहा है। क्या हम अपने बीएड पाठ्यक्रम में अपने ट्रेनीज को समावेशी विकास पर वास्तविक रूप से तैयार कर रहे है। उन्होंने कहा कि टीचर एजुकेशन का पैटर्न बदले बिना ये संभव नहीं हो पाएगा। हमें ये भी सुनिश्चित करना होगा कि जब टीचर क्लासरूम में जाए तो वो अपने विषय का मास्टर तो हो ही लेकिन समावेशी विकास उसका बेसिक कैरेक्टर हो।

उन्होंने आगे कहा कि नई शिक्षा नीति में पहले 5 सालों पर सबसे ज्यादा फोकस किया गया है, जो सही भी है। पूरी दुनिया प्रारंभिक बाल्यावस्था से 5वीं तक की शिक्षा को बेहद अहम मानती है। लेकिन देश में पूर्व-प्राथमिक शिक्षा व्यवस्था खिचड़ी की तरह है, जिसका हर राज्य में अलग स्वरुप है। कही नर्सरी से तो कही केजी और कही पहली से तो कही आँगनबाड़ी से पूर्व प्राथमिक शिक्षा की शुरुआत होती है। वही नई शिक्षा नीति फाउंडेशन के लिए पहले 5 वर्षों पर फोकस करता है। ऐसे में हमें एक मॉडल फ्रेमवर्क बनाना होगा जिसे सभी राज्य अपना सकें।

डिप्टी सीएम मनीष सिसोदिया ने कहा कि दिल्ली में नई शिक्षा नीति में आने वाली बाधाओं को दूर करने के लिए दिल्ली सरकार के शिक्षा विभाग ने राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के चेयरपर्सन प्रोफेसर के. कस्तूरीरंगन जी के मार्गदर्शन में दो समितियाँ बनाई थी, जो एनईपी के सुचारू कार्यान्वयन के रास्ते में आने वाली बाधाओं को समझने और उसे दूर करने के सुझाव पर काम कर रही हैं।

नेशनल अचीवमेंट सर्वे पर अपने विचार रखते हुए उन्होंने कहा कि यह एक अच्छा प्रयास है लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर ऐसे टेस्टिंग प्रोग्राम कहीं न कही शिक्षा व्यवस्था के लिए ख़तरनाक साबित हो सकते है। जिस तरह से आज देश में साल के अंत में होने वाली 3 घंटे की परीक्षा पूरी शिक्षा व्यवस्था के लिए इतना महत्वपूर्ण हो चुका है कि बच्चों का पूरा फोकस परीक्षा पास करन बन जाता है। चाहे वो उससे सीखे या न सीखे। ठीक उसी तरह अगर राज्यों के लिए नेशनल अचीवमेंट सर्वे केवल एक हाई स्टेक एग्जाम न बन जाए उनका उद्देश्य केवल अपना एनएएस स्कोर बेहतर करना बन जाएँ चाहे स्कूल बेहतर हो या न हो बच्चे सीखे या न सीखे।

उपमुख्यमंत्री ने कहा कि हमने देश में शिक्षा के लिए कोई न्यूनतम मानदंड तैयार नहीं किया है। उन्होंने कहा ये पहली बार नहीं है, जब देश में शिक्षा को लेकर बात हो रही है। शिक्षा को लेकर पहले भी बातें होती रही है। देश में आईआईटी, आईआईएम दशकों पहले बनाए जा चुके है। शानदार स्कूल व कॉलेज बनाए जा चुके है लेकिन इनका मॉडल 1000 में से 50 का मॉडल है जहाँ से दुनिया की बड़ी-बड़ी कंपनियां चलाने वाले, बड़े अफसर, प्रोफेसर, रिसर्चर निकलते है। लेकिन बाकी देश उन संस्थानों से निकलता है जिसके लिए कोई न्यूनतम बेंचमार्क तैयार नहीं किया गया है।

उन्होंने कहा कि वर्तमान में दिखाने के लिए चंद सरकारी स्कूल तो हरेक राज्य में अच्छे कर लिए गए हैं लेकिन 95-98 फीसद स्कूलों की हालत बहुत ख़राब है। जहाँ स्कूलों में बच्चे मकड़ी के जाल लगे क्लासरूम में पढ़ने को मजबूर है। जहाँ बुनियादी सुविधाएं मौजूद नहीं है। इसके विपरीत दिल्ली में हमने हरेक स्कूल के लिए एक न्यूनतम बेंचमार्क तय किया है कि कोई भी स्कूल इसके नीचे नहीं होगा। उन्होंने कहा की दो चार स्कूल दिखाने, विडियो बनाने या प्रेज़ेंटेशन बनाने के काम आते हैं लेकिन देश का भविष्य बनाना है तो सभी सरकारी स्कूलों को न्यूनतम गुणवत्ता के स्तर को उठाना ज़रूरी है। ऐसी स्थिति में अगर नई शिक्षा नीति को सफल बनाना है तो सभी पुराने नियमों व व्यवस्था में बदलाव हो। ज्ञात हो कि इस दो दिवसीय कांफ्रेंस का आयोजन केन्द्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेन्द्र प्रधान की अध्यक्षता में कि गई जहाँ देश के सभी राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों के शिक्षा मंत्री शामिल रहे।

 

Check Also

छात्रावास अधीक्षक भर्ती परीक्षा 15 सितंबर को 114 केंद्रों में होगी

जगदलपुर । छत्तीसगढ़ व्यावसायिक परीक्षा मण्डल रायपुर द्वारा 15 सितम्बर को बस्तर जिला मुख्यालय के …