जालौन। उत्तर प्रदेश में बुंदेलखंड क्षेत्र का प्रवेश द्वार कहे जाने वाले यमुना तट पर बसे जालौन को मराठाओं के अदम्य साहस और वीरता के बल पर ऐसा प्रश्रय मिला कि यह क्षेत्र लंबे समय तक मुगलों और उसके बाद अंग्रेजों के आतंक से बचा रहा। इस जनपद के इतिहास में मराठाओं का महत्व अद्वितीय है। यहां परगना कालपी के अंतर्गत इतिहासकार बुंदेल रतन डॉ़ हरिमोहन पुरवार ने मंगलवार को यूनीवार्ता को खास बातचीत में बताया कि कालपी मराठाओं की राजधानी रही। मध्य भारत के उत्तरी प्रवेश द्वार के रूप में सुविख्यात वर्तमान जनपद जालौन का बड़ा ऐतिहासिक महत्व है। जब समूचा भारत अग्रेजों के अत्याचार तथा चहुंमुखी प्रताणना से त्रस्त था तब भी यह जनपद अंग्रेजों द्वारा दी जा रही मर्मान्तक पीड़ा से मुक्त रहा है और इसमें मराठों की भूमिका अत्यन्त सराहनीय रही है।
उस समय ऐतिहासिक एवं सामरिक दृष्टि से इस जनपद का कालपी क्षेत्र अति महत्वपूर्ण था। चाहे मुगल हो या अंग्रेज सभी की दृष्टि कालपी पर ही थी चम्पतराय के पुत्र छत्रसाल के कार्यकाल में इस जनपद पर मुगलों का प्रभाव नगण्य हो गया था। बुंदेलखंड में मराठों का आगमन यहां के नरेश छत्रसाल की मदद के लिए हुआ था । औरंगजेब की मौत के बाद बुंदेलखंड क्षेत्र पर मुगलों का प्रभाव न के बराबर रह गया था यहां छत्रसाल का राज्य था। वर्ष 1713 में दिल्ली के शासक फर्ररूख्शियार ने फर्रुखाबाद के नवाब महमूद खां गजफ़र जिसे नवाब बंगश के नाम से भी जाना जाता था, को कालपी जालौन की जागीर सौप दी परन्तु छत्रसाल के रहते वह इस क्षेत्र पर काबिज नहीं हो पाया।
नवाब बंगश ने कौंच की देखभाल की जिम्मेदारी दिलेर खां को सौंपी । इसी दिलेर खां ने कालपी पर आक्रमण करके छत्रसाल के लोगों को पराजित करके भगा दिया लेकिन छत्रसाल ने पलटवार किया और 15 मई 1721 को छत्रसाल के पुत्र जगत राय ने मौदहा (हमीरपुर) के दिलेर खां को मार कर कालपी पर अधिकार कर लिया। अब तो बंगश और छत्रसाल का युद्ध होना आवश्यक हो गया। नवाब बंगश 1727 में पूरी तैयारी के साथ छत्रसाल से युद्ध लडने के लिये आया। दो वर्षों तक चले अनवरत युद्ध में दिसम्बर 1728 में जैतपुर (महोबा) में छत्रसाल की हार हुयी। तब छत्रसाल ने 15 हजार सैनिकों तथा 10 हजार घोड़ों के साथ आत्मसमर्पण किया। नवाव बंगश ने छत्रसाल को जैतपुर किले में ही बन्दी बना कर रखा। उस समय नवाब बंगश को बगैर किसी सूचना के जैतपुर किले से छत्रसाल ने गुप्तरूप से अपने दूतों के द्वारा पूना के पेशवा बाजीराव प्रथम को पत्र लिखकर सहायता मांगी। महाराज छत्रसाल के इस पत्र पर पूना पेशवा मार्च 1729 में सहायता के लिये आ गये। दोनो की सम्मिलित सेना ने नवाब बंगश को घेर लिया। अगस्त 1729 में बंगश के साथ संधि हुई तथा 23 सितम्बर 1729 को बंगश की सेना कालपी से यमुना पार कर वापस चली गयी।