खेला होबे के मायने

-वीरेंद्र सिंह परिहार-

विगत दिनों 5 राज्यों के विधानसभा चुनावों के जो परिणाम सामने आये, उनका एक बडा निहितार्थ तो यह है कि वर्तमान दार में एन्टी इनकम््बेन्सी या सत्ता विरोधी कारक उतना महत्वपूर्ण नहीं रह गया है जितना कुछ दशकों पूर्व हुआ करता था। यह इससे साबित है कि इन चुनावों में बंगाल, असम एवं केरल में सत्तारूढ पार्टियों ने पुन: जनादेश हासिल किया है। इन विधानसभा चुनावों में जो एक बडी उल्ल्लेखनीय बात कही जा सकती है, वह है -कांग्रेस मुक्त भारत की दिशा में एक बडा कदम। कम से कम बंगाल तो पूरी तरह कांग्रेस मुक्त हो चला है। आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि जिस बंगाल में 2016 के विधानसभा चुनावों में कांगेस मुख्य विपक्षी दल था और 44 सीटेंजीती थी, वहां पर इस विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का खाता भी नहीं खुल पाया। इस तरह यह दावे के साथ कहा जा सकता है कि देश के एक बडे हिस्से के साथ बंगाल से भी कांगेस गायब हो चली है। इन चुनावों में तीसरा महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि असम और केरल में जहां कांगेस अपने गठबंधन के साथ सत्ता में आने की आस लगाये बैठी थी, वहां जहां पहले थी उसी स्थान पर आकर ठहर गई है। इन चुनावों में चौथा महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि बंगाल विधानसभा चुनाव में ममता बनर्जी की तृणमूल को भारी बहुमत मिला पर ममता स्वत: नन्दीग्राम से चुनाव हार गईं, जो संभवत: देश के राजनीतिक इतिहास की पहली घटना है।

उपरोक्त विधानसभा चुनावों में सबसे चर्चित बंगाल का चुनाव था, जहां तुष्टिकरण एवं कुशासन के चलते ममता बनर्जी की सत्ता दांव में लगी हुई थी, परन्तु ममता बनर्जी ने विधानसभा के लिए हुए 292 सीटों में से 212 सीटें जीतकर सत्ता में पुन: वापसी कर ली है। भाजपा की जिसकी पूर्व में मात्र 3 सीटें थी वह 77 सीटें पाकर बंगाल विधानसभा में मुख्य विपक्षी पार्टी बन चुकी है। यद्यपि 2019 के लोक सभा चुनाव के दृष्टिगत भाजपा सत्ता की दावेदार थी, और इस आधार पर इसे बहुत से लोग भाजपा का पराभव भी मानते है। पर यह बात ध्यान में रखी जानी चाहिए कि लोक सभा एवं विधानसभा के चुनावों में बहुत बडा फर्क होता है। उदाहरण के लिए केरल विधानसभा के चुनाव परिणामों को देखा जा सकता है। लोक सभा चुनावों में वाम मोर्चा 21 में से केवल 01 सीट ही जीत सका था लेकिन विधानसभा चुनाव में उसने ज्यादा बडी सीटों के साथ सत्ता में वापसी कर ली। बंगाल चुनाव के संदर्भ में इस तथ्य को भी ध्यान में रखना होगा कि वहां पर भाजपा के पास ममता बनर्जी की तुलना में मुख्यमंत्री का कोई चेहरा नहीं था। भाजपा की पराजय का दूसरा महत्वपूर्ण कारण यह भी था कि वहां पर जिस ढंग से भारी तादात में तृणमूल के पार्टी के लोगों को भाजपा में लिया गया और उन्हें टिकटें दी गई -उससे मतदाताओं एवं भाजपा के कैडर में बहुत प्रतिकूल प्रभाव पडा। इससे यह संदेशा गया कि भाजपा भी तृणमूल कांग्रेस की बी टीम जैसी ही है। ममता की सफलता का एक बडा कारण यह भी है कि वहां पर 30 प्रतिशत मुस्लिम बोटरों ने एकमुश्त ममता के पक्ष में बोट डाला ही , इसके अलावा जहां वह प्रभावी संख्या में थे वहां हिन्दू मतदाताओं को डरा धमका कर वोट ही नहीं डालने दिया गया।

उपरोक्त बातों के अलावा इन चुनावों में बंगाल के संदर्भ में जो सबसे महत्वपूर्ण बात देखने को मिली, वह है-उसका हिंसात्मक चरित्र। यद्यपि हिंसा की शुरूआत वहां वाममोर्चा के शासन के दौरान 1977 से ही शुरू हो गई थी। पर यह हिंसा अमूमन चुनावों के दौरान ही देखने को मिलती थी। बंगाल में पहली बार देखने को मिल रहा है कि कोई पार्टी चुनाव जीतकर सत्ता में आने के बाद भाजपा कार्यकर्ताओं और समर्थकों को बदले की भावना से सबक सिखा रही है। जगह जगह भाजपा समर्थकों के धर तो जलाये गये है इसके साथ कई भाजपा कार्यालयों में भी आग लगाई गई है। भाजपा कार्यकर्ताओं की दुकानें जगह जगह पर ब्यापक पैमाने पर लूटी गई हैं। इतना ही नहीं कई भाजपा कार्यकर्ताओं और समर्थकों की नृशंस हत्यायें भी की गई हैं। खबर है कि 14 से अधिक हत्यायें अभी तक की जा चुकी हैं। यहां तक कि मिदनापुर में भाजपा समर्थकों के शव पेंडों में लटके पाये गये। स्थिति की विकरालता यह है कि महिलाओं से बदसलूकी तो आम बात है, भाजपा की कुछ महिला कार्यकर्ताओं के साथ गैंगरेप तक किया गया । स्थिति की भयावहता यह है कि टीएमसी के गुंडों एवं जेहादियों से डरकर हजारों लोग बंगाल छोडकर असम की ओर पलायन कर गये हैं। अराजकता की हद यह है कि विदेश राज्य मंत्री वी.मुरलीधरन की कार पर भी हमला किया गया जिससे उनकी कार छतिग्रस्त हो गई और चालक को भी चोंटें आई। भाजपा नेताओं के अनुसार 273 स्थानों पर टीएमसी के गुंडों एवं जेहादियों के द्वारा ऐसे कृत्य किये गये। यह अभूतपूर्व बात है कि स्वतंत्र भारत में चुनाव संम्पन्न हो जाने के बाद हिंसा एवं अराजकता का ऐसा नंगा नाच हो। उपरोक्त संदर्भ में चुनावों में दरमियान ममता की यह कथन ध्यान में रखा जाना चाहिए, जब उन्हाने कहा था कि चुनावों के बाद जब सुरक्षा बल चले जायेंगें तब हम देख लेंगें। ममता बार बार जब ” खेला होबे“ का नारा उछालती थी तो शायद उनका आशय ऐसे ही रक्तरंजित खेलों से था। कुल मिलाकर बंगाल में जो हुआ उससे कमोवेश 1947 के विभाजन के समय हुई भयावह दृश्यों की यादें ताजा हो गई है। यह तो ऐसी ही बात हुई कि जब आक्रांता मुस्लिम भारतीय क्षेत्रों को जीतती थी तो हिन्दुओं का कत्ले आम करती थी , भयावह लूटपाट करती थी और महिलाओं के साथ बलात्कार करती थी।
इस संबंध में शुरूआत में ममता बनर्जी ने कहा कि अभी प्रदेश में चुनाव आयोग का नियंत्रण है, पर यह बहानेवाजी के सिवाय कुछ नहीं है। आखिर में ममता कार्यवाहक मुख्यमंत्री तो थी हीं और वह सिर्फ नीतिगत निर्णय नहीं ले सकती थी। कानून एवं ब्यवस्था की स्थिति कों संभालना उनका मुख्य दायित्व था। दूसरी बडी बात यह है कि जब ममता पुन: सत्ता में आ चुकी है तो चुनाव आयोग का निर्देश वहां के अधिकारी क्यों मानने लगे? खासकर उन स्थितियों में जब वहां पुलिस एवं प्रशासन का पूरी तरह से राजनीतिकरण हो चुका है। दुर्भाग्यजनक स्थिति यह है कि गृह मंत्रालय द्वारा इस संबंध में बंगाल के मुख्य सचिव से रिपोर्ट मांगें जाने पर नहीं दी जा रही है। यह हो भी कैसे जब ममता बंगाल को अलग देश मानती हैं। ऐसी स्थिति में गृह मंत्री अमित शाह ने उपरोक्त घटनाओं की जांच के लिए अधिकारियों की 4 सदस्यीय टीम बना दी है, यद्यपि संधवाद के नाम पर ममता उसमें भारी रोडे अटकाएगी। अंतत: ऐसी स्थिति में बंगाल में भारतीय संविधान की धारा 356 के तहत राष्टपति शासन लगाने की मांग बढती ही जा रही है। वैसे भी यदि मोदी सरकार को बंगाल में एनआरसी और सीएए को क्रियान्वित करना है और बंगाल में शांति ब्यवस्था स्थापित करनी है तो इसके अलावा अन्य कोई विकल्प दृष्टिगोचर नहीं होता।

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